जब हम किसी की बात सुनते ही नहीं तो हमारी बात भी भला लोग क्यों सुनेंगे ? जब हमने भगवान की भक्ति ही नहीं की तो फिर भला भगवान हमें अपना भक्त कैसे बनाएंगे ? जब हमने बचत ही नहीं की तो भला जरूरत के वक्त हमें धन राशि कैसे मिलेगी ? हम पाठक के रूप में खुद को स्थापित नहीं कर सकते तो फिर पाठक हमें लेखक के रूप में भला कैसे स्वीकारेंगे ?
1 टिप्पणियाँ
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जवाब देंहटाएंबात तो आप सही कह रहे हैं
:)
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