-अधिकारी बदलते रहे, व्यवस्था वही रही
- मोहन थानवी
स्वतंत्र पत्रकार
Jis Jis Kshetra mein vyavastha mein badlav hua vahan purv se behtar sthiti Najar I Aisa prayog sabhi jagah Hona chahie
अधिकारी बदलते रहे, व्यवस्था वही रही
- मोहन थानवी
स्वतंत्र पत्रकार
अधिकारियों कर्मचारियों के स्थानांतरण आज की बात नहीं है । यह क्रम जब से व्यवस्थाएं बनी है तब से जारी है। इसी से जुड़ी व्यवस्था है सत्ता पर आसीन दलों के नेताओं को दायित्व सौंपने की। कुछ नेता मंत्री बनाए जाते हैं। कुछ मंत्रियों के मंत्रालय बदले जाते हैं। कुछ नेता और मंत्रियों के उत्तरदायित्व कम या ज्यादा किए जाते रहे हैं। इसके अच्छे परिणाम भी सामने आते ही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। लेकिन कुछ समस्याएं जो आमजन से जुड़ी है, कुछ प्रक्रियाएं जो आमजन से जुड़ी है वह बनी रहती है। उनमें जो खासियत अथवा समस्याएं हैं वह भी मुंहबाए सामने तनी रहती हैं। ऐसे में प्रश्न यह उठता है की समस्याओं के समाधान के लिए व्यवस्थाओं में बदलाव कब और कैसे होगा।
शहर छोटा हो या बड़ा गांव हो या कस्बा लगभग हर आबादी क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या सफाई व्यवस्था को लेकर सामने आती है किसी से जुड़ी एक और समस्या है पानी निकासी की। साथ ही निराश्रित पशुओं से संबंधित समस्या भी हर शहर हर गांव को घेरे हुए है। और यह समस्याएं आज की नहीं है। जितना पीछे तक याद कर सकते हैं वहां तक इन समस्याओं का वजूद हमें मिलता है। और जहां तक याददाश्त काम कर जाए वहां तक अधिकारियों कर्मचारियों के स्थानांतरण और नेताओं मंत्रियों के बदलाव की भी जानकारी हमें मिल जाती है।
सरकारों ने नियमों की पालना करते हुए ना जाने कितनी बार अधिकारियों कर्मचारियों को पदोन्नति दी है। स्थानांतरण किए हैं। विभाग बदले हैं। कुछ नए विभाग खोलकर उनमें भी नियुक्तियां की है। यह सब विकास क्रम को गति देने के लिए होता रहा है। अभी भी हो रहा है। लेकिन इसकी परिणति वांछित रूप में आमजन के सम्मुख नहीं पहुंच पाती। इसके संबंध में बहुत सी बार बुद्धिजीवियों ने मंथन किया है। कलमकारों ने कलम चलाई है। वातानुकूलित बड़े-बड़े हाल में अधिकारी नेताओं और मंत्रियों तक ने इस विषय पर विमर्श किया है। लेकिन व्यवस्था तो वही की वही दिखाई देती है।
हां, मंत्री बदल जाते हैं। अधिकारी बदल जाते हैं। कुछ स्तर तक कर्मचारी भी इधर से उधर किए जाते हैं। लेकिन आमजन से जुड़ी समस्याएं जस की तस न केवल बनी रहती है वरन बढ़ती जाती है। ऐसा केवल सार्वजनिक क्षेत्र में ही क्यों होता है? इस पर नीति निर्धारकों को निश्चित रूप से विवेचन करना चाहिए।
किसी भी निजी क्षेत्र की आमजन से जुड़ी समस्याओं के निवारण की पद्धति अथवा प्रक्रिया पर गौर करना चाहिए। निजी क्षेत्र के आवासीय क्षेत्र जो हैं वहां पानी बिजली साफ सफाई आवा गमन के लिए रोड और ऐसी ही अन्य सुविधा सुलभ रहती है। आमजन को वहां कोई शिकायत यदि होती है तो उस पर तुरंत करवाई होती है और समस्या को समाधान की ओर ले जाया जाता है। इसके कई उदाहरण निश्चित रूप से धनिक वर्ग के क्षेत्रों से जुड़े हैं। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में उस प्रक्रिया को फॉलो करने पर यदि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग तक भी इसका लाभ पहुंचता हो तो क्यों न करें। लेकिन सरकार व प्रशासन उन्हें अपनाता नहीं। संशोधित परिशोधित करके भी ऐसी व्यवस्थाओं को अपनाने का कोई उदाहरण ढूंढ़े नहीं मिलता।
इसके पीछे बहुत सी बातें सामने आती है। सबसे बड़ी बात तो यही है कि सरकार कानून और बंधे बनाए नियमों पर चलती है। सरकार की व्यवस्थाएं भी उसे लीक पर न केवल चलती है वरन् दौड़ती रहती है। भले ही कितना ही नुकसान दिखाई देता हो। उदाहरण के लिए निविदाओं पर कार्य के अंजाम सामने रखे जा सकते हैं। सरकारी नौकरी और निजी क्षेत्र की नौकरी में जो अंतर है वह भी एक बड़ा कारण है। निजी क्षेत्र में कार्य में लापरवाही या उदासीनता पर तुरंत एक्शन होता है। कार्मिक को या तो नौकरी से ही हाथ धोना पड़ता है अथवा उसे अर्थ दंड सहित अन्य दंड भोगने पड़ते हैं। लेकिन सरकारी क्षेत्र में क्या होता है यह किसी से छुपा नहीं है।
लब्बोलुआब यह की व्यवस्थाओं में सुधार की अनिवार्यता सामने खड़ी है। लेकिन इस और अधिकृत और सक्षम अधिकारियों नेताओं मंत्रियों का ध्यान आकर्षण नहीं होता या व्यवस्था के आगे वे अक्षम सिद्ध हो जाते हैं। आमजन की राय में अधिकारियों कर्मचारी नेताओं और मंत्रियों के बदलने अथवा सत्ता पर काबिज दलों के परिवर्तन से अधिक महत्वपूर्ण व्यवस्थाओं में सार्थक बदलाव की आवश्यकता है। ऐसा होगा तभी विकसित भारत का स्वप्न सही मायने में साकार सामने खड़ा मिलेगा।
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