मैं इस धर्मसंघ का चौकीदार- आचार्य विजयराज


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मैं इस धर्मसंघ का चौकीदार- आचार्य विजयराज 

मैं इस धर्मसंघ का चौकीदार- 1008 आचार्य श्री विजयराज जी म.सा.
जीव कर्म करने के लिए स्वतंत्र है फल भोगने में नहीं  
 बीकानेर। जैन धर्म में कर्म का सिद्धान्त बहुत बड़ा सिद्धान्त है। जब तक कर्म सिद्धान्त समझ नहीं आता है, धर्म सिद्धान्त भी नहीं आता है। इसलिए कर्म समझ में आना चाहिए। लेकिन कर्म हमारे समझ में नहीं आता और हम अनावश्यक कर्म में समय व्यतीत करते हैं। जब कर्म के फल भोगने का समय आता है तब हमें कर्म का महत्व समझ आता है लेकिन  तब तक देर हो चुकी होती है। यह उद्गार  युगपुरूष आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराज जी म.सा. ने रविवार को बागड़ी मोहल्ला स्थित  सेठ धनराज ढढ्ढा कोटड़ी में  चल रहे चातुर्मास के दौरान  धर्मसभा में व्यक्त किये ।  उन्होंने कहा कि  जैन धर्म में  आठ प्रकार के कर्म बताए गए हैं। इन्हें दो भागों में बांटा गया है। पहले चार कर्म को घाति और दूसरे चार कर्म को अघति कर्म कहा जाता है। घाति वह कर्म है जो आत्मा के मूल गुणों का घात करता है। अघाति कर्म  ऐसे कर्म होते हैं जो आत्मा के सामान्य गुणों को प्रभावित करते हैं और आत्मा को विकृत बना देते हैं। संसार में जितने भी जीव हैं, उनमें वेदनी कर्म पाया जाता है। महाराज साहब ने बताया कि संसार में शायद ही ऐसा कोई जीव है जिसे वेदना का अनुभव ना हुआ हो, देखा गया है कि कुछ तो ऐसे होते हें जिन्हें जन्म लेने के साथ ही वेदना और व्याधि शुरू हो जाती है।
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने व्याधि और वेदना को जीव के संस्कार से जोड़ते हुए कहा कि जीव अनादिकाल के कर्म संस्कार लेकर चलता है। उदाहरण देते हुए महाराज साहब ने कहा कि मैंने देखा है जन्म लेने वाले बालकों में 350 तक शुगर पाई जाती है। ऐसे बालक जिन्होंने जीवन शुरू ही किया है, उनमें अनेक ऐसे रोग होते हैं, जो वेदना और व्याधि से भरे होते हैं। यह सब क्या है..?, यह उसके पूर्व जन्मों के कर्मों का संस्कार है जो वह साथ लेकर चलता है। इनसे बचना है तो जीवन में  दो काम  करो, इस जन्म में तो कर्म से बचना ही है और साथ ही पूर्व के कर्मों को सुधारना है तो कर्म करने में सावधानी रखें, दूसरा फल भोगने में समभाव रखो, समभाव नहीं रहने पर ही कर्मों का भार बढ़ता है। आचार्य श्री ने कहा कि जैन धर्म में जीव कर्म करने के लिए स्वतंत्र है लेकिन कर्म का फल भोगने में  स्वतंत्र नहीं है। महाराज साहब ने मिश्री और मिर्च का उदाहरण देकर वस्तु  के स्वभाव की बात कहते हुए कहा कर्म के स्वरूप को जब तक नहीं समझेंगे, हम इस बंधन से मुक्त नहीं होंगे। कर्म से बचने के लिए महाराज साहब ने कहा कि समभाव रखें, धैर्य रखें, शांति रखें, इससे जीवन में शांति आ जाएगी। शांति रखने से शांति मिलती है, मन अशांत है और आप बाहर शांति खोज रहे हैं तो यह व्यर्थ है।
महाराज साहब ने सुखी रहने का मंत्र बताते हुए कहा कि परिस्थितियों को कभी भी अपने पर हावी मत होने दो और दूसरों को सुधारने में अपना बिगाड़ मत करो। सुधारने का काम समय का है। समय बहुत बड़ा सर्जन है, समय आने पर सब सुधर जाते हैं। इसलिए घबराओ मत, धैर्य रखो, मजबूत बनो और दृढ़ रहो, विपदा से बचे रहोगे।
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने धर्मसभा में आने वाले श्रावक-श्राविकाओं से कहा कि वे नित्य प्रवचन में आएं और  लाभ उठाएं, चातुर्मास के लिए मैं यहां आ गया हूं और चौकी पर बैठ गया हूं, आप सब सामने जमीन पर बैठे हैंं। जो जमीन पर बैठता है, वह जमींदार होता है और जो चौकी पर बैठा है वह चौकीदार होता है। धर्मसंघ में मेरे दो काम है। एक वांछित को प्रवेश देना और अवांछित को प्रवेश ना देना, मैं संघ का चौकीदार हूं और आपकी चौकीदारी कर रहा हूं।  महाराज साहब ने कहा कि असाता वेदनीय का जोर संसार में ज्यादा है।
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने वेदनीय कर्म के  दो भेद बताए हैं, पहली साता वेदनीय और दूसरी असाता वेदनीय होते हैं।
श्री शान्त-क्रान्ति युवा संघ के कार्यकारी अध्यक्ष एवं प्रचार मंत्री विकास सुखाणी ने बताया कि धर्मसभा का विराम सामूहिक वंदना से हुआ। इससे पूर्व ‘हे नाथ दया करके  चरणों में बिठा लेना’ गीतिका का सामूहिक संगान से हुआ। धर्मसभा के दौरान तेला, बेला,उपवास रखने वाले श्रावक-श्राविकाओं को महाराज साहब ने आशीर्वाद दिया। 




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