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किक लगी, सुई भी अटकी

किक लगी, सुई भी अटकी

आज कामयाबियों की बुलंदी पर है राज की कला। राजनीति। राज कला। यूं राज कला मंदिर की फिल्में भी हिट हुई हैं। राजनीति तो हिट है ही। किक लगा कर राजनीतिज्ञों को भी "हिट" किया जाता है। चलन से बाहर हो चुके ग्रामोफोन का बाजार भी तेजी में दर्शाया जाने का रिकॉर्ड सुई अटका कर बना लिया जाता है। किंतु कबाड़ में से निकालकर ग्रामोफोन को ऊंचे मुद्दों में शुमार करवाने वाले राजकलाबाज शायद नहीं जानते कि मतदाता भी रिकॉर्ड बनाने और तोड़ने की कला के माहिर खिलाड़ी हैं । कुर्सीधारी तो राजनीतिक शख्सियतों को "हिट" करते ही हैं। कुर्सी पूजक भी बाजीगिरी में पीछे नहीं। जैसा कि काफी समय से देख रहे हैं "हम लोग" । एक राजनीतिक शख्सियत दूसरी राजनीतिक शख्सियत को "हिट" करने में जरा भी चूक नहीं करती ।  बस मौका मिला नहीं कि लगा दी "हिट" करने के लिए "किक" । अभी बीते सप्ताह ही कुछ मसले ऐसे उठे जिनके कारण किक मारते हुए मुद्दे एक से दूसरे के पाले में "हिट" किए जाते रहे।  कभी मतदाता और जाति-गोत्र के नाम पर तो कभी सर्जिकल स्ट्राइक बैनर तले। कभी आगस्ता तो कभी राफेल । जैसा कि सभी जानते और मानते हैं कि कुर्सीधारी वो जो जनता के वोट जुटा कर कुर्सी पर विराजमान हो। कुर्सी पूजक वो जो कुर्सी पर विराजमान की पूजा करने से न चूकता हो। और हम नहींं, लोग कहते हैं - दोनों कार्य राज की कला है। राज करने की कला। राज में न होते हुए भी ऐसी कला जानने वाले राज करते हैं। जो राज नहीं कर पाते वे फुटबाल के जैसे हिट लगा कर हरफनमौला खिलाड़ी की तरह अपनी कलाकारी दिखाते हैं। नियुक्तियों में, पदोन्नतियों में, स्थानांतरण में, आबंटन उपाबंटन में ऐसे ही राज कलाकारों की तूती बोलती है। ये पांच वर्ष की अवधि से भी बंधे नहीं होते। हां, पांच वर्ष के संक्रमण काल में ऐसी कला के ज्ञाता कुछ राज खोलने पर आमादा दिखते हैं। खोलते नहीं। अपनी अपनी पार्टी से बंधे ऐसे राज दार पार्टी के खूंटे से खुलने के लिए छटपटाते हैं। कुछ राजनीति से, कुछ राज दारी से अपनी पार्टी के हित में दूसरी पार्टी से जुड़ने की कला का प्रदर्शन करते हैं। यह भी राज कला ही मानी जाने योग्य है। कुछ गंभीर, गहरे राज दार, राज कला के माहिर, समाज में अपनी पैठ रखने वाले, अपने साथी राज कलाकारों से राज नेताओं समान पक्की गांठ बांधने वाले गठबंधन की तैयारी भी करते हैं। जैसा इन दिनों किए जाने की खबरें गुप्त सूत्रों के हवाले से फिजां में हैं। कहा यह भी जा रहा है कि हवा बदली और वर्षा के साथ ओले भी गिरे तो दलबदलुओं पर यह कथन फिट बैठेगा कि सिर मुंडाते ही ओले पड़े । लेकिन सच यह भी है कि सत्ता के लिए अपना नाम-पहचान तक बदल देने वाले ऐसी कलाबाजियां खाते हैं कि फिर से नए गठबंधन में कामयाब भी हो जाते हैं। ऐसी गतिविधियां लोकतंत्र के पंचवर्षीय कुंभ का अनिवार्य अनुष्ठान के समान होती हैं। जो कि इन दिनों होती दिखाई दे ही रही हैं। कांग्रेस और भाजपा के अलावा अब तक  किसी अन्य पार्टी और प्रत्याशी ने राजस्थान के राज दरबार में पद-सुख नहीं भोगा। किंतु तूफानी हवाएं पैगाम दे रही हैं कि इस बार तीसरे मोर्चे के कुछ राज नेता अपनी जगह राजदरबार में देखने के लिए प्रयत्नशील हैं। तभी तो जानकार कहते हैं - राजकला 64 कलाओं से भी आगे की चीज है। इसके आगे चंद्रमा की कलाएं भी फीकी पड़ सकती हैं। रंगकर्म की 16 कलाओं में कलम और विचार के माध्यम से समाज और राष्ट्र में क्रांति लाने का माद्दा है तो एकमात्र राज कला में गली गली में, घर घर में, भाई भाई में राजनीतिक क्रांति लाने का। इसलिए राज कला आज राज कर रही है। जनता के वोट भी इसके आगे नतमस्तक दिखने लगते हैं। जनता केवल दो ही पार्टियों में से पसंद और नापसंद का चुनाव करने को उद्यत रहती है मगर राज कला में माहिर कलाकार जनता को दो की बजाय 22 में से पसंद नापसंद की चॉइस उपलब्ध कराते हैं। हाथ कंगन को आरसी क्या...  बीकानेर में ही देखिए जहां 22 प्रत्याशियों वाली ईवीएम पर वोटरों ने उंगलियों से दबा-दबा कर दे दनादन वोटिंग की है। वैसे अधिक प्रत्याशियों के इसके फायदे अनुभवी पार्टियां जानती हैं। देखना यह है कि ये जो पब्लिक है वह सब जानने के बाद भी राजनीति में कितने किले और बनते देखेगी। कितनी किक लगते और  सुईयां अटकते देखेगी।  कब "जनताराज" सामने आएगा। फिलहाल और बहरहाल तो 11 दिसम्बर को रिकॉर्ड बनते या टूटते देखेंगे "हम लोग" । तब तक राज "राज" ही रहेगा।




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