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उल्लू बनाया बड़ा गुस्सा आया

उल्लू बनाया बड़ा गुस्सा आया

अचरज किसी को न हुआ जब दृष्टि विहीन गाता रहा, बहरा बजाता रहा। उनके ऐसे शोरशराबे के बीच भी कतिपय गुणीजनों ने हितकारी और कर्णप्रिय शास्त्रीय रागों से प्रफुल्लित किया। शाम को शोर थमने तक लोग गुणीजनों की वाणी को ही गुनते रहे, बाकी दोनों को सुनने और सराहने वाला कोई न मिला। जी हां, दृष्टि विहीन तो यह भी देख न सका कि उसका गीत कोई सुन ही नहीं रहा। इसी प्रकार बहरे को भी भान न हुआ कि उसकी ढफली को सुनने वाले शांति शांति की दुहाई दिए जा रहे हैं । और वह  अपनी धुन में बजाता रहा। अब इसे आप वीरधरा पर महालोकपर्व के मुख्य आयोजन से एक दिन पहले तक के माहौल से संबद्ध कर देखें तो भला हम रोकने वाले कौन होते हैं ! दरअसल हम तो लोकवचनों की बात कर रहे हैं।  एक से बढ़कर एक दो मूर्ख जहां हों तब कहा जाता है, अंधा गाए, बहरा बजाए। लेकिन हर कहावत के एकाधिक मायने हो सकते हैं, इसका एक अर्थ यह भी लगा सकते हैं कि छल बल से अपनी पहुंच बनाकर भोले भाले लोगों को ठगने वाले ठग प्रवृत्ति के लोग अपने कृत्य से लोगों को चूना लगाते रहते हैं और लोग उनकी शिकायत उन्हीं जैसे पावर वाले लोगों से करते करते थक जाते हैं। संभवतया इसी वजह से आजकल अचरज नहीं होता जब अखबारों में खबर पढ़ते हैं कि फलां गांव या मोहल्ले में सोना चमकाने के नाम पर ठग सोना ही ले उड़े। ऐसी वारदातों की पुनरावृत्ति इतनी बार हो चुकी है कि ठगना या मतलब निकालना या स्वार्थ पूरा करने का द्योतक बेचारा ‘‘उल्लू’’ बन गया है।  गली गली में बच्चे भी ‘‘उल्लू बनाया बड़ा मजा आया’’ उद्घोष के साथ खेलते - दौड़ते मिल जाते हैं। कभी कहा जाता रहा कि किसी को उल्लू बनाना कोई खेल नहीं लेकिन अब ऐसे खेल यत्र तत्र सर्वत्र खेलने वाले मिल जाएं तो भी अचरज नहीं होता। कतिपय लोग अपना मतलब निकालने के लिए भावनाओं का ऐसा ज्वार-भाटा पैदा करते हैं कि सामने वाला उल्लू तो बन ही जाता है, कतिपय मामले तो ऐसे भी सुनने में आए कि उल्लू बनने वाले के प्रतिरोध से बचने के लिए उसे मनोरोगी भी प्रचारित किया जाने लगा। खिलौना । पगला कहीं का । ऐसे उल्लू बनाने वाले तो समाज के लिए घातक होते ही हैं, ऐसे लोगों से सचेत रहना जरूरी है।  हाइटेक हो चुके युग में सभी क्षेत्रों में प्रोफेशनल माइंड ऐसे ऐसे तरीके ईजाद करते रहते हैं कि कोई चतुर सुजान भी यकबयक उल्लू बनने की कल्पना नहीं कर सकता । जी, टू जी, थ्री जी, फोर जी और पता नहीं जी, कितने-कितने जी की बदौलत अब तो मोबाइल पर भी देश-विदेश से रियायती दरों पर कीमती चीजें खरीदने के ऑफर मिलने लगे। बाइक, फोर व्हीलर तो हर रोज कोई न कोई कंपनी ऑफर करती ही है, रहने के लिए घर तक आपके घर बैठे देने वाले हेलो हेलो करते रहते हैं। अपना ईमेल इन बॉक्स खोलो तो लाखों डॉलर चुटकियों में मिल जाने का सपना दिखाई दे जाता है। और तो और, आप कमाते नहीं तो रोजगार दिलाने वाले भी चौतरफा तत्पर मिलते हैं। नौकरी दिलाने के नाम पर कितनों ने बेरोजगारों को सपने दिखाए और अपना उल्लू सीधा कर लिया। अब जरा सफेदपोशों की दुनिया में झांकें तो आपकी तारीफ पर तारीफ कर अपना उल्लू सीधा करने वाले टेढ़े लोग भी दिख जाएंगे। भावनात्मक रूप से शोषण करने वालों को पहचानना सिर्फ डिग्रीधारी मनोविज्ञानी का ही काम नहीं है, अपने और समाज के हित में जागरूक हो कर हर व्यक्ति को उल्लू बनाने वाले ऐसे लोगों के मुखौटे उतारने होंगे। वरना अंधा गाता रहेगा, बहरा बजाता रहेगा और लोग सिर धुनते रहेंगे।   इसे मजलूम का शोषण करने वालों पर भी लागू कर देखिए... सटीक लगेगा कि बरसों पुराने कहावतों के संसार में हमारे वर्तमान और आस पास का जीवन कैसे समा गया ! वैसे महालोकपर्व के मुख्य आयोजन से पहले ही जनता जान चुकी है कि... उल्लू कहीं नहीं गया... समझ चुकी है कि... उल्लू को प्रशय देना अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी चलाना है।

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