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अपने आप को पहचानने का सरल तरीका है ध्यान: मुनिश्री कुशलकुमार
आचार्य तुलसी की मासिक पुण्यतिथि पर ‘‘आओ करें प्रेक्षाध्यान’’ विषयक संगोष्ठी आयोजित
गंगाशहर। ध्यान हमें यह बताता है कि हम अभी भी अपने आप से बहुत कम ही परिचित है। ध्यान से हम ममत्व व खुद को पा सकते हैं। आज ध्यान अनेक रूपों में परिवर्तित हो गया है जैसे एकाग्रता, तनाव, स्वास्थ्य, कर्म निर्जरा आदि अनेक रूपों में ध्यान का प्रयोग होना शुरू हो गया है। ध्यान करने से सभी परेशानियों का आप आसानी से सामना कर सकते हैं। यह विचार नैतिकता का शक्तिपीठ में आचार्य तुलसी की मासिक पुण्यतिथि पर आयोजित ‘आओ करें प्रेक्षाध्यान’ विषयक संगोष्ठी के मुख्यप्रशिक्षक धीरेन्द्र बोथरा ने कही। उन्होंने कहा कि प्रेक्षा का अर्थ होता है गहराई में उतर कर देखना या किसी वस्तु के अंदर खो जाना। इसलिए प्रेक्षा ध्यान का उद्देश्य होता है स्वयं की गहराई में जाकर स्वयं को खोजना और परमात्मा को प्राप्त करना। प्रेक्षाध्यान की उत्पत्ति जैन धर्म से हुई थी। जैन परम्परा में प्रेक्षा ध्यान को बहुत महत्त्व दिया जाता है। बोथरा ने कहा कि प्रेक्षा ध्यान की सहायता से अभ्यासकर्ता अपने मन को अपने सूक्ष्म मन से जोड़ने की साधना करता है। यानि अपनी चेतना को जागृत करता हैं और अपनी चेतना को जागृत करना ही प्रेक्षा ध्यान है। अपने मन के भावों को साक्षी बनकर देखना ही प्रेक्षा ध्यान है। विपस्सना ध्यान और प्रेक्षा ध्यान लगभग एक जैसे ही होते है। दोनों ध्यान विधियों का लक्ष्य स्वयं की गहराई में जाना होता है। लेकिन दोनों ध्यान अलग धर्म  से होने के कारण दोनों का अपना अलग-अलग महत्व है। प्रेक्षा ध्यान को जैन धर्म में अभिनव भी कहा जाता है।
आचार्य तुलसी शान्ति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष जैन लूणकरण छाजेड़ ने कहा कि प्रेक्षाध्यान नियमित करना चाहिए। एक दिन के लिए नहीं। प्रेक्षाध्यान से हम अपने जीवन का रूपान्तरण कर सकते हैं। अणुव्रत के सिद्धान्तों को जीवन में उतारने के लिए हमें ध्यान का माध्यम अपनाना पड़ता है। उन्होंने कहा कि ‘रहें भीतर- जीयें बाहर’ प्रेक्षाध्यान का मुख्य ध्येय है। ध्यान कर्म निर्जरा का मुख्य साधन है। हम प्रतिदिन अपने दैनिक जीवन में इस क्रम को शुरू करें। शान्ति प्रतिष्ठान इस क्रम को बढ़ाने के लिए आप के साथ तैयार है।
मुनिश्री कुशलकुमारजी ने कहा कि ध्यान अपने आप से परिचित होने की प्रक्रिया है। मैं कौन हूं, क्या कर रहा हूं, क्या करना है। ध्यान अपने आप को पहचानने का एक सरल और आसान तरीका है। ध्यान करने बैठते हैं तो हमें विचार बहुत आते हैं। ध्यान में हमारा काम है निर्विचार होना। लेकिन शुरूआत में आप विचारों का स्वागत करें। उन्हें देखते जाये। आप 21 सप्ताह तक  इन विचारों को देखते जायें। एक दिन आप इन विचारों से निजात पाने की दिशा में बहुत आगे बढ़ जाएंगे। मुनिश्री ने कहा कि आचार्य महाप्रज्ञ जी ने अपनी अनेक पुस्तकों के माध्यम से एवं प्रयोगों और प्रशिक्षणों के माध्यम से ध्यान की पूरी पद्धति जनता के सामने रखी है। अभ्यास करते हुए भावधारा में परिवर्तन, अनुप्रेक्षा के माध्यम से हम आगे बढ़ सकते हैं। प्रत्येक साधक को ध्येय के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है। मुनिश्री ने कहा कि ध्यान छोटी-छोटी बातों से शुरू हो सकता है। जैसे बोलते समय, चलते समय, देखते समय, खाते समय। यानि दैनिक जीवन की प्रत्येक गतिविधियों को ध्यान से जोड़ सकते हैं और ध्यान की गहराइयों में पहुंचा जा सकता है। मुनिश्री ने कहा कि आचार्य भिक्षु  आतापना लेते थे और चौविहार उपवास के साथ घंटों-घंटों ध्यान करते थे। आचार्य भिक्षु दो मुहूर्त श्वास रोक सकते थे यह उनकी ध्यान साधना की शक्ति थी। व्यवधान में भी समाधान का रास्ता दिखाने का कार्य आचार्य तुलसी शान्ति प्रतिष्ठान कर रहा है।
शासनश्री मुनिश्री मणिलाल जी ने कहा कि ध्यान का मतलब  है सीमा में रहना। ध्यान से हम सीमा में रहना सीखते हैं। आचार्य हेमचन्द्र जी ने बताया है ,ध्यान का मतलब क्या है ?अर्थ क्या है ? लाभ  क्या है ? राग और द्वेष मूलक प्रवृत्तियों का शमन करना जरूरी है वह अभ्यास के द्वारा ही संभव हो सकता है। उन्होंने कहा कि ध्यान से हम आत्मा को, स्वयं के साथ अनेक प्रवृत्तियों को देख सकते हैं। चिंतन करें, मनन करें कि मैं कौन हूं।
संगोष्ठी की विधिवत शुरूआत मंगल मंत्रोच्चार से शासनश्री मुनिश्री मणिलाल द्वारा की गई। गंगाशहर कन्या मण्डल के द्वारा मंगलाचरण किया गया। साथ ही मुनिश्री कुशलकुमारजी ने जप करवाया। संगोष्ठी के मुख्यप्रशिक्षक धीरेन्द्र बोथरा का अध्यक्ष जैन लूणकरण छाजेड़ व ट्रस्टी जतन संचेती ने जैन पताका, साहित्य व स्मृति चिन्ह देकर सम्मान किया। आभार तेरापंथी सभा के मंत्री अमरचन्द सोनी ने जताया। कार्यक्रम का संचालन मनोज सेठिया ने किया।






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