ये अंदर की बात है।.भाइयों ने एक एक चाबी संभाल कर घर चलाना शुरु किया पहले अभावों ने  सुख से रहना सिखाया था। अभाव ऐसे थे जिन्हें हम झेल सकते थे । आने वाले दिनों के सुख के लिए पेट काटकर पढ़ाई कर सकते थे। समय बीतता गया।  भाइयों ने एक बार एक कमरा दुकान के रूप में किराए पर चढ़ाने की बात कही । खूब विरोध किया मैंने और विपक्षी बन गया । मेरा विरोध भी काम करने लगा।   घर पर कुछ और सदस्य मेरे साथ थे। लेकिन यह क्या धीरे धीरे धीरे धीरे बाहरी लोगों का घर पर आना जाना होने लगा।  घर चलाने में उनका सहयोग अपरोक्ष रूप से ही सही मेरी समझ में आने लगा।  जो मुझे नागवार  लगता। मैंने बहुत बार विपक्ष की भूमिका में अपने आप को मजबूती से रखा। घर के लोगों को समझाया । सदस्यों को अपनी तरफ मिलाया।  और आखिरकार 1 दिन  सारी चाबियां मेरे पास पहुंच गई । और मेरा मुख्य काम रह गया आसपास मोहल्लों में घरों में जाकर वहां की व्यवस्थाएं देखना और अपने घर के प्रधान के रूप में उन घरों में स्थापित करने का प्रयास करना।  इसमें भी मुझे सफलता मिलती रही। जिससे दूसरे घर के लोग प्रसन्न होते और मुझे पीठ थपथपाकर शाबाशी देते । मैं इस शाबाशी और अपने नाम की गूंज में बाकी बातें भूल गया।  जिन बातों का मैं विरोध करता था अब वही बातें मैं या मेरे साथी करने लगे। और फिर आज ऐसे हालात बने कि मुझे अपने ही घर के सदस्यों का भी विरोध सहना पड़ा।   जिनसे मैंने जिम्मेदारी ली थी वे ही सदस्य अब मुझे मेरे दायित्व की ओर इंगित कर रहे थे।  लेकिन मैं अपनी ही धुन में यह सोच कर अड़ा रहा कि आस-पास के गांव  आसपास के मोहल्ले वाले आसपास के घर वाले तो मुझे बहुत बड़ा तीस मार खा समझने लगे हैं। और आखिरकार अब देखा कि मेरे घर के कुछ सदस्यों से मेरा साथ छूटने लगा। अब भाइयों इसे किसी और बात से ना जोड़ें  किसी राजनीतिक बात से तो बिलकुल ना जोड़ें। ये अंदर की बात है।
- मोहन थानवी