पेड़ फिर शाखाहीन होने लगा है....


देखते हैं चुपचाप हालात
.... पेड़ फिर शाखाहीन होने लगा है....

जिसे ठूंठ समझते हैं ...
बहते हैं उस कोटर के आंसू ...
देखते हैं चुपचाप हालात
.... पेड़ फिर शाखाहीन होने लगा है....
...
पत्ते तेज हवाओ से झड़ गए हैं ....
नभचरों ने बुन लिया है....
फिर दूर कही एक नीड़...
किसी हरे भरे बरगद क़ी...घनी
कौंपलों के बीच ....
चील कौंवो से बचने के लिए ...
वे भी साक्षी हैं ...
जानते हैं ....

देखते हैं चुपचाप हालात
.... पेड़ फिर शाखाहीन होने लगा है....

...
ठूंठ बनते जा रहे पेड़ के पास ...
तने से निकलते आंसुवो के सिवाय ...
कुछ नहीं बचा ...
आंसू भी निर्दयी लकड़हारा...
गोंद समझकर ले जा रहा है...
..देखते हैं चुपचाप हालात
.... पेड़ फिर शाखाहीन होने लगा है....