राही रैंकिंग का पूरा सच
( कई साल पहले मैंने हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका "धर्मयुग में एक व्यंग्य लेख "साहित्य में रैंकिंग" लिखा था जिसमे उन लोगों का खूब मज़ाक उड़ाया था जो साहित्य क्षेत्र में अपना नाम चमकाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद... ✍️)
राही रैंकिंग एक गंभीर प्रयास है। राही सहयोग संस्थान द्वारा प्रति वर्ष सूची जारी होती है। इसके प्रणेता प्रबोध गोविल है जिन्होंने दशकों पहले धर्मयुग में एक व्यंग्य लेख "साहित्य में रैंकिंग" लिखा था। अनुराग शर्मा ने गोविल का साक्षात्कार लिया जो 2016 में छपा। उसीका अंश... ✍️
गोविल ने कहा - कई साल पहले मैंने हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका "धर्मयुग में एक व्यंग्य लेख "साहित्य में रैंकिंग" लिखा था जिसमे उन लोगों का खूब मज़ाक उड़ाया था जो साहित्य क्षेत्र में अपना नाम चमकाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना कर साहित्यजगत के कंधे पर लद जाते हैं। धीरे-धीरे समय ने वो ज़माना ही ला दिया कि व्यंग्य वास्तविकता से दिखने लगे। लक्षणा,अभिधा और व्यंजना में कही गयी बातें एकसे "सपाट"अर्थ देने लगीं। तब मैंने सोचा कि जो लोग संजीदगी से लिख रहे हैं, पसंद किये जा रहे हैं, उन्हें आपा-धापी के बवंडर से बचाने के लिए कोई निश्छल-निष्कपट प्रयास किया जाये।
गोविल ने कहा - कई साल पहले मैंने हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका "धर्मयुग में एक व्यंग्य लेख "साहित्य में रैंकिंग" लिखा था जिसमे उन लोगों का खूब मज़ाक उड़ाया था जो साहित्य क्षेत्र में अपना नाम चमकाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना कर साहित्यजगत के कंधे पर लद जाते हैं। धीरे-धीरे समय ने वो ज़माना ही ला दिया कि व्यंग्य वास्तविकता से दिखने लगे। लक्षणा,अभिधा और व्यंजना में कही गयी बातें एकसे "सपाट"अर्थ देने लगीं। तब मैंने सोचा कि जो लोग संजीदगी से लिख रहे हैं, पसंद किये जा रहे हैं, उन्हें आपा-धापी के बवंडर से बचाने के लिए कोई निश्छल-निष्कपट प्रयास किया जाये।
ऐसे में अलग-अलग जगह पर बैठे रुचिशील लोगों का एक छोटा सा समूह बना कर हम उन साहित्यकारों को ढूंढने लगे जिन्हें लोग खूब पढ़ रहे हैं और पसंद भी कर रहे हैं। हमने इनमें विद्यार्थियों, शोधार्थियों, गृहणियों, संपादकों, प्रकाशकों, समीक्षकों, पुस्तकालय-वाचनालय कर्मियों, पुस्तक वितरकों-विक्रेताओं से लेकर सामान्य रुचिशील पाठकों तक को शामिल किया।
व्यापार, फिल्मों, खेलों में तो ऐसा होता रहा है, हां,साहित्य में ऐसा पहले नहीं देखा। हम इसे ज़्यादा से ज़्यादा प्रामाणिक बनाने की कोशिश करेंगे। सोशल मीडिया और इंटरनेट इसमें हमारी पूरी मदद कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि जो पुराने साहित्यकार सोशल मीडिया से नहीं जुड़े, हम उनकी अनदेखी कर दें।
यदि हमारी कोशिशों में लोगों को कोई छल-कपट, स्वार्थ या भेदभाव नहीं दिमतखा तो शायद इसकी मान्यता भी बढ़ेगी।
( साभार. Setu ....................... सेतु
ISSN 2475-1359
* Bilingual journal published from Pittsburgh, USA :: पिट्सबर्ग अमेरिका से प्रकाशित द्वैभाषिक * )
* Bilingual journal published from Pittsburgh, USA :: पिट्सबर्ग अमेरिका से प्रकाशित द्वैभाषिक * )
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