‘‘गुलामी की जंज़ीर’’ से निकले….


‘‘गुलामी की जंज़ीर’’ से निकले….
‘‘गुलामी की जंज़ीर’’ से निकले.... ( अजमेर से सिंधी में प्रकाशित हिंदू दैनिक के 15 अगस्त 2011 के संस्करण में ---- ) ‘‘गुलामी की जंज़ीर’’ से निकले, ‘‘आजादी की बेड़ी’’ मंे पहुंचे गुलाम बेगम बादशाह
‘‘गुलामी की जंज़ीर’’ से निकले.... ( अजमेर से सिंधी में प्रकाशित हिंदू दैनिक के 15 अगस्त 2011 के संस्करण में ---- ) ‘‘गुलामी की जंज़ीर’’ से निकले, ‘‘आजादी की बेड़ी’’ मंे पहुंचे गुलाम बेगम बादशाह
( अजमेर से सिंधी में प्रकाशित हिंदू दैनिक के 15 अगस्त 2011 के संस्करण में  —- )
‘‘गुलामी की जंज़ीर’’ से निकले, ‘‘आजादी की बेड़ी’’ मंे पहुंचे गुलाम बेगम बादशाह
आधी रात को जब दुनिया सोई हुई थी। खामोश दीवारों पर टंगे 1947 के कैलंेडर के अगस्त माह के पृष्ठ पर आधे बीते दिनों की तारीख परिवर्तित हो रही थी। तब आजादी ने गुलामी को जलावतन कर राष्ट्र को जाग्रत किया। गुलामी की जंज़ीरें काट कर हम आजादी की बेड़ी ( नाव ) में पहुंच गए। जंज़ीर अपराधियों को कैद में रखने के लिए और जानवरों को काबू में करने के काम में लाई जाती है। बेड़ी  नदी, तालाब पार करने के लिए इस्तेमाल की जाती है। लेकिन, बेड़ी का एक अर्थ जंज़ीर भी है।
आजादी की बेड़ी के स्वागत – अभिनंदन में खूब हल्ला हुआ। नाजुक दौर में कितने ही लोगांे ने अपनी जान दे दी। ( कितने ही लोगों की जानें ले ली गई ) । उन आजादी के दीवानों का स्वप्निल का भारत आज संक्रमण काल के उन पलों को जी रहा दृष्टिगोचर हो रहा है जो पल भविष्य निर्धारित करते हैं।
राष्ट्र में फिर आधी रात को वैसा ही अंधेरा छाया नजर आ रहा है जिस अंधेरे के बाद सुबह का सूरज निश्चित रूप से उजाला फैलाता है। क्या यह हालात पर नियंत्रण करने के लिए उठ खड़े होने का संकेत है !
आरक्षण की आग चारों ओर लगी हुई है। आमजन आजाद होते हुए भी खुद को आरक्षण की कैद में महसूस कर रहा है। मूल्य वृद्धि और महंगाई के इस दौर में आम जनता त्राहिमाम त्राहिमाम कर रही है और … वतन के मालिक कहलाए जाने वाले या कि ‘‘राष्ट्र के रहनुमा’’ संबोधन पसंद करने वाले एक दूसरे की टांगें खींच कर येन केन प्रकारेण तख्तोताज  ( कुर्सी ) हासिल करने के प्रयासों को अमलीजामा पहनाने में जुटे हैं।
खौफ पैदा करने वाले ऐसे मंजर को देख -समझ कर मेरे जैसा आम आदमी खुद को आजादी की बेड़ी में जकड़ा हुआ मससूस कर रहा है।
दूसरी ओर संक्रमण काल के ये पल कह रहे हैं, भेद-भाव, जाति-पांति, साम्प्रदायिकवाद, आतंकवाद का खात्मा करना हम सभी का फर्ज है, दायित्व, कर्तव्य है। साथ ही साथ वक्त यह भी कह रहा है, शिक्ष एवं रोजगार के अधिकार सहित रोटी कपड़ा और मकान की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करना राज और समाज का काम है।
आजादी के मूल्यों सहित हमें और राज एवं समाज को इन मुद्दों पर विचार-मंथन करना ही चाहिए।
इस फानी दुनिया में  ‘‘वन्स अपॉन ए टाइम’ (’किसी समय ) बेगम – बादशाह भी गुलाम रह चुके हैं। और राज बेगम – बादशाह का रहा हो या राजा – रानी का, प्रजा ( रिआया, जनता ) तो गुलाम ही समझी जाती रही है। रिआया को गुलाम समझने वाले बेगम बादशाह भी अपने राज के मालिक और गुलाम ! जी हां श्रीमानजी, ऐसे किस्से आपने भी पढ़े होंगे। सुने होंगे। सिनेमाघरों में भी ऐसी फिल्में बहुतायत में प्रदर्शित हुई जिनकी कहानी राजा – रानी के ईर्दगिर्द घूमती रही। वजीर ( मंत्री, महामंत्री ) सेनापति या अन्य राज्य के सेनापति साजिश कर राजा – रानी को कैद में कर लेते थे। कमोबेश ऐसे ही हालात विदेशी हमलावरों ने भी पैदा किए। छल कपट और साजिश कर सिंधु और भारत के अन्य प्रांतों में अपने कदम जमाते रहे। गुलामी की जंज़ीर कसकर जकड़ते रहे और जनता को दास बनाकर सताया। बीते हजारों वर्ष का इतिहास इस बात की ओर संकेत कर रहा है। गुलाम बेगम बादशाह की प्रजा बि गुलामी की मानसिकता में रही। लेकिन जिस तरीके से गुलाम बेगम बादशाह के राजकुमार, राजकुमारी या राज परिवार के किसी सदस्य ने गुलामी की जंजीरों को काटकर अपने राज्य को आजाद कराया उससे भी बेहतर तरीके से स्वतंत्रता सेनानियों ने हमारे भारत को आजादी की सुबह का सूरज दिखाया।
ये भी सच है कि समस्त भारत समेत सिंधु और सिंधुवासियों के लिए वह समय नाजुक था। उस नाजुक समय ने आखिरकार हमारे हिस्से की जमीन छीन ली। आधी रात को दरबदर होकर हमारे बुजुर्ग गुलामी की जंज़ीरों को कटवाकर आजादी की बेड़ी में आ बैठे। अब यह हमें तय करना है कि हम आजादी की बेड़ी में बैठ कर विकास की नदी, तालाब और सागर पार करें या … इस बेड़ी को अपने चहुंओर बांधा हुआ अनुभव करते रहें। उठो जागो तो अपनी इस सिंधु ( भारत ) का नवनिर्माण करें। – मोहन थानवी

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