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वास्तविक सुख राग के त्याग में - आचार्य विजयराज


खबरों में बीकानेर











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वास्तविक सुख राग के त्याग में -  आचार्य  विजयराज जी महाराज साहब
समय को सार्थक करो, यह लौटकर नहीं आने वाला-  1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब
विषयाशक्ति व्यक्ति को कमजोर, कायर और जड़ बनाती है-1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब
बीकानेर। ‘जिया कब तक उलझेगा, संसार के कल्पों में, इतने भव बीत चूके, संकल्पों- विकल्पों में’, मनुष्य, तू अपने जीव से पूछ कि हे जीव तू कब तक संसार के विकल्प और संकल्प में जियेगा। संसार के विकल्प और संकल्प से अपने को ऊपर उठा, तुझे वास्तविक सुख पाना है तो तुझे राग का त्याग करना पड़ेगा। 

एक भजन की पंक्तियों और उसके भावार्थ से अवगत कराते हुए आचार्य विजयराज जी महाराज साहब ने शनिवार को सेठ धनराज ढ़ढ्ढा की कोटड़ी में चल रहे चातुर्मास के नित्य प्रवचन में साता वेदनीय कर्म के पाचवें बंध शील का पालन पर अपना व्याख्यान दिया।

आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि जीव को वास्तविक सुख  पाना हो तो  राग का त्याग करना पड़ता है। अपने जीवन का उद्देश्य समझना होगा, जिसने अपने जीवन के उद्देश्य को समझा, वह विषयाशक्ति से  मुक्त हुआ है। इसलिए अपने को सजग व सावधान करो, विषय वासना की पूर्ति संसार के सभी जीव  करते हैं। लेकिन वह समय पर करते हैं, परन्तु मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो ना दिन देखता है, ना रात देखता है, ना सुबह और ना शाम देखता है। इस विषय विकार से बाहर निकलने का प्रयास करें।

महाराज साहब ने कहा कि शील का पालन कब हो सकता है...?, महापुरुष फरमाते हैं कि जब हमारी विषयाशक्ति घटती है, तब ही शील का पालन हो सकता है। हमारा चित्त, चिंतन , इन्द्रियां हमें वासनाओं की ओर ले जाती है। विषय और विकार शील का पालन नहीं करने देते, ऐसे में हमें वासनाओं और विषयों से मोह को तोडऩे के लिए आत्मचिंतन करने की आवश्यकता होती है।

आचार्य श्री ने बताया कि संसार में दो तत्व हैं। पहला जड़ और दूसरा चेतन, जड़ से जुडऩे का अर्थ है, हम जड़ता को प्रदान करते हैं और चेतना से जुडऩे का अर्थ चेतनता की ओर जाना है। अगर हम जड़ से जुडऩा बंद कर दें तो  विषयाश1ित कम होती जाती है। क्योंकि जड़ हमारा नहीं होता यह ‘पर’ होता है और चेतन्य ‘स्व’ होता है। चेतन्य से जुडऩे पर हमारे स्व का विकास होता है। इससे विषय घटने लगते हैं।  जब तक ‘पर’ का राग मन में रहता है, पर से अभिप्राय वो मेरा, या वो मेरी से है। यह भाव जब तक मन में रहता है, तब तक विषयाशक्ति नहीं छूटती और  जब तक विषया श1ित नहीं छूटती  तब तक शील का पालन नहीं किया जा सकता। 

 महाराज साहब ने कहा कि व्य1ित मदिरा की बोतल से बच सकता है, लेकिन वासना की बोतल से बचना आसान नहीं है, वे बिरले ही होते हैं। अगर वासना की बोतल से बचें तो आप वितराग के नमूने होते हैं। लेकिन संसार के अधिकांश व्यक्ति वासना की मदिरा से नहीं बच सकते।

आचार्य श्री ने  चार संज्ञाऐं बताते हुए तीसरी संज्ञा मैथुन संज्ञा के बारे में कहा कि मैथुन संज्ञा को वही जीत सकता है जो वासनाओं, विकारों और विषयों पर विजय प्राप्त करता है और विषया शक्ति जड़ के राग को छोडऩे से छूटती है। महाराज साहब ने कहा कि उभय सूत्र में बताया गया है कि जो लोक-लाज से शील का पालन करते हैं, वह अकाम निर्जरा वाले शील का पालन करते हैं, वह सौलह हजार  वर्ष सुख का अनुभव करने वाली वैमानिक जाति वाले देव यौनि में चले जाते हैं।  इच्छाशक्ति से शील का  पालन करने वाला 26 देवलोक तक प्राप्त कर सकता है।  

आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि जीवन में भावों का प्रभाव तो होता ही है। शरीर में बुढ़ापा मनुष्यों को आता है। देवताओं का शरीर तो सदैव 32 वर्ष की आयु के पुरुष जैसा बना रहता है। उन्हें ना बुढ़ापा आता है और ना उनके रोग होता है। रोग मनुष्य के शरीर के पीछे लगा रहता है। वह किसी ना किसी रोग से ग्रसित रहता ही है। कभी ये रोग, कभी वो रोग में उलझा ही रहता है।  

आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि समय को सार्थक करो, यह समय फिर लौटकर नहीं आने वाला, धर्म ध्यान करने वाले, सामायिक करने वाले ही अपने समय को सार्थक करते हैं। विषय विकारों में उलझकर आप संतुष्टि चाहेंगे तो आपको संतुष्टि नहीं मिलेगी। विषय एक आग है, इसमें जितना घी डाला जाता है, आग उतनी ही बढ़ती जाती है। जब तक हमें आत्मशक्ति का बोध नहीं होगा, हमारी विषय शक्ति नहीं घटती है। विषयाशक्ति व्यक्ति को कमजोर, कायर और जड़ बना देती है। जो विषयों पर विजय पाता है वही शूरवीर और शक्तिशाली कहलाता है। इसलिए आवश्यकता है तत्वज्ञान को प्राप्त करने की, आत्मज्ञान को प्राप्त करने की, जब तक इनकी प्राप्ति नहीं होगी विषया आस1ित नहीं छूटने वाली है। इसका संबंध स्वार्थ से है, सारे संबंध स्वार्थ की धूरी पर घूमते हैं।  स्वार्थ की धूरी में खलल पड़ता है तो सारे संबंध अपने आप छूटने लगते हैं।

महाराज साहब ने कहा कि जो गुण और कर्म के जैन होते हैं वह व्यसनों के त्यागी होते हैं। हमारा धर्म राग के त्याग का धर्म है। काम, द्वेष, विषय राग का त्याग करना हमारे धर्म में बताया जाता है। इससे पुण्य का उदय होता है। जिनके पुण्य उदय होते हैं, उन्हें ही साता वेदनीय कर्म का बंध होता है। इसलिए विषय वासना से बचो, शील का पालन करो, संसार बसाया, संसार को भोगा और समय आने पर संसार का त्याग भी किया यह बहुत बड़ी विशेषता होती है। इसलिए जब अनुकूलताऐं मिले त्याग करें, प्रतिकूलताओं में तो सभी त्याग करते हैं। दीक्षा के 9 कारणों में से एक कारण यह भी है कि अनुकूलता  मिलने पर संयम लिया जाता है। इसका उदाहरण महाराज साहब ने गुजरात के जतिन भाई और उनकी बीमार माता जी कंचन बहन एवं पत्नी भारती बेन के  माध्यम से प्रसंग सुनाकर त्याग की भावना का अपने शब्दों के माध्यम से सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया।

बाहर से आए अतिथियों का किया स्वागत
श्री शान्त क्रान्ति श्री जैन श्रावक संघ की ओर से इंदौर, उड़ीसा, ब्यावर, अजमेर, दिल्ली सहित राजस्थान के जिलों से आने वाले अतिथियों का स्वागत किया गया। संघ के अध्यक्ष विजयकुमार लोढ़ा ने बताया कि महाराज साहब के दर्शनार्थ और उनके मुखारविन्द से जिनवाणी का लाभ लेने के लिए  संघो का आने का क्रम जारी है। जिनके लिए संघ की ओर से रहने, खाने, ठहरने और धर्म ध्यान के लिए व्यवस्थाऐं की गई है। बाहर से आए महानुभव निरन्तर सामायिक और तप का लाभ भी ले रहे हैं। 










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