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साधकों का लक्ष्य साधना और उपासना, वासना नहीं- आचार्य विजयराज


खबरों में बीकानेर





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साधकों का लक्ष्य साधना और उपासना,  वासना नहीं- आचार्य विजयराज जी म.सा.  
हम भोगों को नहीं, भोग हमें भोगते हैं-आचार्य श्री विजयराज जी म.सा.
दिशा में सुधार करो, दशा  सुधरेगी- आचार्य श्री विजयराज जी म.सा.
बीकानेर। साता वेदनीय कर्म का बंध करने वाला  पांचवा बोल है शील का पालन करना। शील धर्म है, जो धर्म का पालन करता है वह पुण्य बढ़ाता है और जो पुण्यानी बढाता है वह साता वेदनीय कर्म का बंधा करता है। यह सद्ज्ञान श्रावक श्राविकाओं को 1008  आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने अपने नित्य प्रवचन में दिया। सेठ धनराज ढ़ढ्ढा की कोटड़ी में चल रहे चातुर्मास के नित्य प्रवचन में आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने  बताया कि जीवन का लक्ष्य वासना नहीं होना चाहिए। जीवन का लक्ष्य तो साधना और उपासना है। साधना और उपासना से वासना पर विजय पाई जाती है। वासना हम साधकों का लक्ष्य नहीं है। मनुष्य वासना से अभिभूत होकर  ना जाने कितने-कितने जन्म गंवा देता है। इसलिए भजन में कहा गया है।   ‘कितने- कितने जन्म गवांए, कितने संकट झेले, हम नाम प्रभु का ले लें, नाम प्रभु का मंगलकारी, सब दुख हरने वाला, घोर भयंकर जंगल में भी मंगल करने वाला’ महाराज साहब ने फरमाया कि प्रभु का नाम अंर्तमन से लिया जाता है तो सारी वासनाएं शांत हो जाती है।
एक प्रसंग सुनाते हुए आचार्य श्री ने बताया कि रावण को किसी ने सुझाव दिया कि वह सीता को माता या बहन  मान ले, इस पर रावण ने कहा जब में सीता को मां या बहन के रूप में देखता हूं तो मेरी सारी वासनाएं शांत हो जाती है। आचार्य श्री ने कहा कि संसार में हम जितनी भी मां-बहन को देखते हैं भागीनीवाद  होते हैं। इसलिए शील की पालना करने के लिए सबसे पहले दृष्टि को सुधारना चाहिए। दृष्टि जब सुधरती है तो दिशा सुधर जाती है। जब दिशा सुधर जाती है तो दशा अपने आप सुधर जाएगी।
ज्ञानीजनों ने कहा भी है कि अपनी दृष्टि को निर्मल करो, दृष्टि में विकार है तो वृत्ति में विकार होगा, इससे प्रवृति में विकार आएगा। इसलिए मैं आपसे कहना चाहता हूं कि हम सब शील के, अहिंसा के साधक हैं। शील की साधना करो, शील को सुरक्षित रखा तो सब सुरक्षित रहेगा। कहावत भी है कि तन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ-कुछ गया और धन गया तो कुछ भी ना गया। धन की लालसा रखना भी वासना है। चरित्र की दृष्टि रखने वाले चरित्र को ही सब कुछ मानते हैं। चरित्र और शील हमारा धर्म है, यह चला गया तो सब कुछ चला जाएगा। धन का क्या है, यह तो हाथ का मैल है, यह तो चढ़ता- उतरता रहता है।  यह मानना चाहिए कि धन गया तो कुछ नहीं गया। अगर आपका पुण्य, आपका पुरुषार्थ प्रबल है तो धन कहीं नहीं जाएगा और जो गया है वह वापस आ जाएगा। इसलिए धन को सबकुछ नहीं मानना चाहिए।
आचार्य श्री ने बताया कि सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र और सम्यक दर्शन तीनों मोक्ष के मार्ग हैं। ज्ञान दर्शन चरित्र के बगैर नहीं मिलता। हमें यह तय करना होता है कि हम सदाचारी बनें या दुराचारी बने। जो दुराचारी होते हैं वह अपमान, घृणा, तिरस्कार, नफरत के पात्र बनते हैं। जो सदाचारी होते हैं वह यश, ख्याती, किर्ती पाते हैं। भगवती सूत्र का एक प्रसंग बताते हुए महाराज साहब ने कहा कि भगवान महावीर से गौतम स्वामी ने पूछा कि भगवन जो एक बार अब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह कितने जीवों की हिंसा करता है। इस पर भगवान महावीर ने बताया कि जो ऐसा करता है वह दो से नौ लाख तक संघी जीवों की हिंसा करता है। संघी जीव यहां उनको कहा गया है जिनके अंदर मन होता है। महाराज साहब ने कहा कि संसार में बगैर मन के भी जीव होते हैं।
आचार्य श्री ने कहा कि संसारी का सुख इन्द्रिय सुख, विषय सुख पर टिका होता है और थोड़ी देर के सुख के लिए वह ना जाने कितने जीवों की  हिंसा का भागीदार बनता है। अच्चारण सूत्र में भगवान महावीर ने कहा है कि हिंसा ग्रंथी है, नरक है। भगवान महावीर का सिद्धान्त अहिंसा है। एक बार जो विकार में चला जाता है, वह वासना की पूर्ति के लिए हिंसा करता चला जाता है।
महाराज साहब ने कहा कि संसारी के पास सुविधाएं बहुत है। रहने को अच्छे, बड़े मकान है, खाने के लिए अच्छा भोजन है, घूमने के लिए गाड़ी है। लेकिन क्या इन साधनों सुविधाओं के बाद भी आप सुखी हैं..?। बंधुओ इतनी सुविधाओं के बाद भी क्या आप सुखी हैं..?, अगर आप सुखी नहीं हैं तो इसका मतलब है कि सुख अलग है और सुविधा अलग है। हम किसी को सुख नहीं देंगे तो सुख हमें भी प्राप्त नहीं होगा।
 महाराज साहब ने एक दंपति का प्रसंग सुनाते हुए बताया कि एक चालीस साल का दम्पति संत के पास आया और कहा कि हमें आजीवन शील पालन का नियम दिला दो, इस पर संत ने कहा कि उम्र कितनी है।  उसने कहा चालीस साल, इस पर महाराज ने कहा इस उम्र में और आजीवन शील पालन का व्रत, क्या पति-पत्नि में कोई अनबन है, कोई शारीरिक समस्या है या कोई और बात है। इस  पर पति ने कहा नहीं महाराज  कोई कमी नहीं है। सब कुछ है, लेकिन एक समस्या यह हुई कि कुछ समय पहले मेरा छोटा भाई आकस्मिक मृत्यु को प्राप्त हो गया। इसके बाद मेरी पत्नी ने अपनी देवरानी से कहा कि वे दूसरा विवाह कर ले। लेकिन वह इस पर राजी नहीं है, मेरी पत्नी का कहना है कि मेरी देवरानी अकेली सोएगी। जब वह अकेली सोएगी तो उसके अन्दर बहुत से संकल्प- विकल्प चलेंगे। फिर भी वह अकेली ना रहे, इसलिए मैं देवरानी के पास सोना चाहती हूं। आप पति हैं आपकी आज्ञा के बगैर यह संभव नहीं है। इसलिए मुझसे आज्ञा मांगी है, और हम आपके पास शील का पालन करें यह नियम लेने आए हैं।  संत ने यह सुना और उनकी सराहना करते हुए कहा कि ऐसे त्याग की भावना रखने वाले, किसी के सुख के लिए अपने संयम करने वाले, शील की रक्षा करने वाले बहुत बड़े त्यागी, पुण्यवान होते हैं। संत ने उन्हें शील के पालन का नियम दिलाया। महाराज साहब ने कहा कि ब्रह्मचर्य की शक्ति के सामने दिव्य शक्ति भी  पानी भरती है। इसलिए मैं कहता हूं कि शील का पालन हम कर सकते हैं, केवल मानसिकता की जरूरत है। एक बार मानसिकता बन गई फिर आप शील का पालन भी कर सकते हैं।
महाराज साहब ने श्रावक- श्राविकाओं से कहा कि दिखावे का जीवन शील के नियम में बाधक है। सौंदर्य प्रसाधनों का उपयोग आजकल बहुत हो रहा है। नारी के साथ पुरुष भी इससे अछूते नहीं हैं। लेकिन नारी यह भूल रही है कि नारी तो स्वयं सुन्दर है, उसे प्रसाधनों की जरूरत कहां पड़ गई। जब बल और सौंदर्य बंट रहा था तब कहते हैं कि नारी ने सौंदर्य मांगा और पुरुष ने बल मांग लिया। इसलिए नारी सुन्दर होती है और पुरुष को बलवान  कहा जाता है। पुरुष में जितना बल होता है, उतना नारी में नहीं होता है। महाराज साहब ने श्राविकाओं से कहा कि सौंदर्य प्रसाधन का उपयोग नहीं करना चाहिए, जो करते हैं उन्हें यह जान लेना चाहिए कि वे इसके पीछे कितनी हिंसा का प्रयोग कर रहे हैं। इसका अंर्तमुखी चिंतन करना चाहिए। 











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