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बहुत कुछ करना बाकी है आधी आबादी के लिए, नाकाफी है चन्द परिधियों से मुक्ति, चाहिए आसमानी उड़ान - रीना छंगानी Much remains to be done for half the population,It is not enough to get rid of the moon, flying in the sky - Reena Changani

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Much remains to be done for half the population,

It is not enough to get rid of the moon, flying in the sky

 

- Reena Changani










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 📝   ✍️बहुत कुछ करना बाकी है आधी आबादी के लिए,
नाकाफी है चन्द परिधियों से मुक्ति, चाहिए आसमानी उड़ान
 
- रीना छंगानी




reenachhngani@gmail.com

 

भारतीय संदर्भ में नारी स्वतंत्रता की दिशा में अभी बहुत कुछ करना शेष है। इसके लिए वैयक्तिक और सामाजिक स्तर पर जागरुकता के साथ सकारात्मक बदलाव लाने के लिए समर्पित प्रयासों की नितान्त आवश्यकता है। हालांकि हाल के वर्षों में काफी कुछ हुआ है लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है और इसके लिए उत्तरोत्तर प्रयासों में समर्पित भाव से जुटने की


सीमित दायरों से बाहर आने की जद्दोजहद

दीवारों की परिधियों से बाहर निकलने मात्र का अवसर दे देना नारी मुक्ति नहीं कहा जा सकता। उन्हें हर तरह की मौलिक और उन्नतिकारी मुक्ति चाहिए। भारतवर्ष में यदि नारी मुक्ति का बिगुल बजा है तो केवल एक ही सुर में, यानी कि महिलाओं को घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर कामकाज में संलग्न कर दीजिए और समझ लीजिएं कि आधी दुनिया पर हमने बहुत बड़ा अहसान कर दिया है।

नारी मुक्ति के संदर्भ में यह यक्ष प्रश्न हमेशा कुलबुलाता रहेगा कि क्या सचमुच महिलाओं के घर से निकलने तथा कामकाजी होने मात्र से उनकी समस्याओं का निदान हो जाएगा? या क्या वे वास्तव में शोषण से मुक्त हो जाएँगी?

हमेशा रहा है कामकाजी स्वभाव

महिलाएँ कामकाजी तो सदा से रही हैं। इससे भी ऊपर वे कामकाज के मामले में घरेलू जिंदगी में कोल्हू के बैल की तरह जुटी हुई हैं। हाँ इतना अवश्य है कि बाहरी र्कायक्षेत्र में आने से उनके कार्य को महत्व मिला है, उनकी शक्ति, सामर्थ्य  और क्षमताओं को स्वीकारा जाने लगा है।

यह सब कुछ उन्हें अपने दैनन्दिन घरेलू कार्यों में मिलना कतई संभव नहीं था। बल्कि यों कहा जाए कि घरेलू कार्यों को उनका जन्मसिद्ध कर्तव्य समझा जाता है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सच तो यह है कि ऎसे कामाेंं की न उन्हें तारीफ मिल पाती है और न ही कोई मूल्य समझा जाता है।

राष्ट्रीय सरोकारों में आगे

शिक्षा के क्षेत्र में जागृति आने से महिलाओं के कदम विभिन्न रोजगारों की ओर अग्रसर हुए हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1981 से 1991 के दशक में रोजगार में पुरुषों की संख्या 21.4 फीसदी बढ़ी है, जबकि महिलाओं के आँकड़ों में 42.66 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस तरह के आँकड़े महिलाओं में अंकुरित हुए आत्मविश्वास को दर्शाते हैं जो अपनी योग्यता, कार्यक्षमता और दृढ़ आत्मविश्वास से राष्ट्र की उन्नति में सक्रिय भागीदारी दर्ज करा रही हैं।

समाप्त हो निर्भरता

लगता तो यही है कि रोजगार के क्षेत्र में कदम रखने से महिलाओं को कुछ फायदे नसीब हुए हैं किंतु वास्तव में उन्हें परंपरागत कठिनाइयों का सामना करने के अलावा समस्याओं का अंबार भी सौगात के रूप में मिला है। कोई भी महिला बाहरी तौर पर किसी कार्यक्षेत्र को अपनाने का निर्णय सदियों से चले आ रहे रूढ़ियों के भँवरजाल से निकल कर लेती हैं। फिर उसका अपने कार्यक्षेत्र में बने रहना या न रहना आज भी उस पर स्वयं निर्भर न होकर विवाह पूर्व पालकों पर तथा विवाह पश्चात ससुराल पक्ष पर निर्भर करता है।

कई पाटन के बीच फंसी है नारी

वर्तमान में अधिकांश लड़के उसी लड़की को पत्नी बनाना स्वीकार करते हैं जो घरेलू कामकाज के साथ-साथ नौकरीपेशा भी हो। क्योंकि परिवार में सोने का अंडा देने वाली कामकाजी बहू र्आथिक सहारा सिद्ध होती है।

इसीलिए कई बार यह भी देखने में आता है कि महिला स्वयं अपनी कमाई पर भी कोई अधिकार नहीं जता पाती, उसे अपने वेतन का पूरा हिसाब घर में देना होता है। यदि घर में नौकर-चाकर हों तो उनका वेतन, राशन, बच्चों की फीस, दवाई, कपड़े आदि का खर्च पूरी तरह से उसी के वेतन पर निर्भर करता है।

लड़कियां पढ़ाई में आजकल लड़कों से बाजी मार रही हैं। उनके लिए नौकरी पाना भी आसान है। कई बार वे पति से अधिक कमा रही होती हैं। नौकरी से उनमें आत्मविश्वास बढ़ा है। र्आथिक स्वतंत्रता कभी-कभी उन्हें अहंकारी भी बना देती है।

समन्वय और संवेदनशीलता है अहम् जरूरत

यह सही है कि उन्हें अपने पर ज्यादती नहीं होने देनी चाहिए। ऎसे में उन्हें मुकाबला करने का पूरा हक है लेकिन अगर वे अपनी कमाई को लेकर घमंड करती हैं और अपने को घर में सब से सुपीरियर समझने लगती हैं तो घर में कलह होनी शुरू हो जाती है जिसका कोई अंत नहीं होता। अपनी मजबूरी को समझते हुए उसे इससे संघर्ष करते हुए अपनी संवेदनशीलता बरकरार रखनी होगी, क्योंकि इसी पर टिका है उसका और परिवार का सुख। यहां पति को भी अपनी जिम्मेदारी का अहसास होना जरूरी है।

प्यार चाहिए, और सहानुभूति भी

अब वो पारंपरिक पतियों की तरह पत्नी को बैठ-बैठे ऑर्डर नहीं कर सकते क्योंकि वो भी उतनी ही मेहनत करती हैं। शरीर उसका भी थकता है। उसे पति से प्यार और सहानुभूति चाहिए, तभी तो वह दुगनी ऊर्जा और उत्साह से घर बाहर दोनों मोचोर्ं पर मुस्तैदी से कार्य कर पाएगी।

हर दिन नई चुनौतियों से साक्षात्

ऎसे दम्पत्तियों के बच्चे भी बहुत जल्दी आत्मर्निभर बन जाते हैं। उन्हें जितना संभव हो, ज्यादा से ज्यादा वक्त दें। उनकी समस्याओं को समझ पाना, उनसे दोस्ताना व्यवहार रख उन्हें गाइड करना कामकाजी माँओं के लिए और भी ज्यादा जरूरी है क्योंकि जो वक्त वे उन्हें न देकर ऑफिस, मीटिंग आदि में गुजारती हैं, उसका मुआवज़ा भी उन्हें ही देना है। नौकरीपेशा महिला का जीवन आसान नहीं। उसकी कर्मठता हर रोज नई चुनौतियों का सामना करती है। शायद यही उसकी नियति है और यही जीने का ढंग।

---000--

- रीना छंगानी

जिला समन्वयक,

महिला शक्ति केन्द्र,

(महिला अधिकारिता विभाग),

जैसलमेर (राजस्थान)

345001 ✍🏻


नोट : आलेख में लेखिका के स्वयं के विचार स्वतंत्र हैं। हम सहमत हों यह आवश्यक नहीं। - खबरों में बीकानेर 

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