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राजस्थानी कथा-यात्रा को उत्तर आधुनिक मार्ग पर अग्रसर कर रही प्रतिनिधि कहानियों का खजाना
पोथी-परख : मोहन थानवी
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राजस्थानी कथा-यात्रा को उत्तर आधुनिक मार्ग पर अग्रसर कर रही प्रतिनिधि कहानियों का खजाना
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पोथी-परख : मोहन थानवी
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आलोचना रै आंगणै, बिना हासलपाई, जादू रो पेन के साथ-साथ हिंदी-राजस्थानी के मध्य सेतु के रूप में साहित्य जगत में ख्याति प्राप्त डॉ नीरज दइया का नाम ही उनका परिचय है। डॉ दइया को अब क्षेत्रीय भाषाओं के कथा-साहित्य जगत में संकलन, संपादन और अनुवाद का एक ऐसा कोष देने के लिए पहचाना जाएगा जिसका नाम 101 राजस्थानी कहानियां है। राजस्थानी भाषा साहित्य प्राचीन विपुल निधि के लिए तो अपना कोई सानी नहीं रखता साथ ही तुलनात्मक व विवेचनात्मक दृष्टिकोण से आधुनिक साहित्य के हेतु भी किसी भी क्षेत्रीय भाषा साहित्य से कमतर नहीं है। अब राजस्थानी कहानियों की ऐसी विवेचना में इसे उत्तर आधुनिक साहित्य के प्रति भी निसंकोच किसी से पीछे नहीं, आगे ही कहा जाएगा। ऐसी धारणा व्यक्त करने के कारणों में से एक मुख्य कारण है 101 राजस्थानी कहानियां संग्रह। संग्रह में जहां दशकों पहले लिखी गई और माइलस्टोन सिद्ध हुई कहानियां संकलित हैं, वहीं 21वीं सदी के दूसरे दशक के अंतिम सौपान के चलते लिखी जा रही कहानियों का प्रतिनिधित्व करती राजस्थानी कथा-यात्रा को उत्तर आधुनिक मार्ग पर अग्रसर कर रही कहानियां शामिल की गई हैं। इस संग्रह की कहानियों का संकलन एवं संपादन डॉ नीरज दइया ने किया है । सभी कहानियां अपने में अनेक विशेषताएं रखती हैं। इस संग्रह की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि निर्बाध रूप से केवल कहानी को ही प्रस्तुत किया गया है । कहानीकार और कथा-सार या कथा-विषय के प्रति डॉक्टर दइया ने 20 से अधिक पृष्ठीय संपादकीय में अपने पूरे अध्ययन को सार संक्षेप में प्रस्तुत करने का एक नवाचार भी रखा है। हालांकि ऐसा नवाचार पूर्व में संकलित रचनाओं के संग्रहों में किया जा चुका है किंतु यहां नवाचार इस मायने महत्ता रखता है कि डॉ दइया ने अपनी लेखनी के जादूभरे आलेख में भाषाई कहानियों के इतिहास के साथ-साथ विहंगम दृष्टिपात हिंदी की मुख्य धारा के कथा साहित्य पर भी किया है।
संग्रह की कहानियों की शुरुआत ही केंद्रीय साहित्य अकादमी से पुरस्कृत अतुल कनक की "काचू की साइकिल" कहानी से की गई है। अतुल कनक एक लोहनिर्मित और रबड़-टायर चालित साइकिल में प्राण प्रतिष्ठा करने में तो सफल हुए ही हैं साथ ही उसकी संवेदनाओं के ज्वार में भीगी मन की बात को अपनी कलम से कागज पर उकेर लाए हैं। ऐसा ही आलम अतुल कनक की मूल राजस्थानी रचना पर छाया हुआ है। ऐसी ही प्रवृत्ति और मनोरंगों को देखने वाली आंख और श्रवण करते कर्ण छिद्रों से गहरे तक उतार देने वाली दिखने छोटी मगर गंभीर घाव कर देने वाली निशांत की कहानी है - "अखबार की चोरी"। पात्र इस कहानी को स्वयं बता रहा है । वह यात्रा कर रहा है और सहयात्री के पास मौजूद एक अखबार में अपनी फोटो छपी देख कर अखबार के पन्ने को घर ले जाने के लिए छुपा लेता है । सहयात्री अखबार के उसी पन्ने को किसी और खबर के कारण सहेज कर घर ले जाना चाहता है । वह पन्ना ना मिलने पर ढूंढता है । इसी घटना पर पाठक रोचकता से, उत्सुकता से लबरेज हो कहानी को पढ़ रहा है। अंततः पात्र स्वयं यह स्वीकारता है कि अखबार की चोरी करने का उसे पछतावा तो है। कहानी यहीं खत्म नहीं होती बल्कि पाठकों को एक द्वंद्व से निकलने को मनन मंथन के लिए नई कहानियों को जन्म देती है। संग्रह की सभी 101 कहानियों पर सम्मति प्रकट की जाए तो इस 504 पृष्ठीय संग्रह से अधिक पृष्ठों का एक और ग्रंथ का सृजन हो जाएगा। कहानियों को पढ़ते हुए पाठक स्वयं को पात्रों का अंतरंग मित्र अनुभूत करता है। पाठक को ऐसा पूरा एक संसार मिलता है जो उसे अपना-सा लगता है। इस संसार की नजीर देती ऐसी कहानियों में राजस्थानी ग्रामीण अंचल को पाठक के समक्ष जीवंत उपस्थित कर देने वाले अन्नाराम सुदामा की कहानी "सूझती दीठ",भोगे हुए यथार्थ को दृश्य दर दृश्य अनुभूत करवा देने में महारत हासिल कन्हैयालाल भाटी की कहानी "छलावा", पात्रों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण को कथा में सूक्ष्मता से पिरो कर पाठक को मनन-मंथन करने की ओर अग्रसर कर देने वाली रचनाओं के रचयिता चंद्र प्रकाश देवल की कहानी "कोड़ा", परंपराओं और आधुनिक परिवेश में अंतर को रेखांकित करते अपनी जड़ों से जकड़े रहने का संदेश देने वाले जनकराज पारीक की कहानी "नाम" इत्यादि कहांनियों का संगम है - 101 राजस्थानी कहानियां संग्रह । ओम प्रकाश भाटिया की कहानी "हाथ से निकला सुख" का आरंभ और शीर्षक पाठक को जो आभास देता है उससे ठीक उलट कहानी का विराम-स्थल है, जहां से इस दौर में जीवन की आपाधापी में मां-बाप से दूर जाते बच्चों को रोकने की पुकार सुनाई देती है तो साथ ही अनजान सेवक-चाकरों के प्रति अविश्वास पनपने हेतु घटित घटनाओं की गूंज भी पाठक को सचेत करती है। संग्रह की एक कहानी है, "आसान नहीं है रास्ता"। नंद भारद्वाज ने इस कहानी में अपनी शैली से कई रंग भर दिए हैं। पात्रों की मनोस्थिति को सांकेतिक संवादों से उकेरने की कला को नवांकुरों द्वारा सीखने का प्रयास नंद भारद्वाज की इस कहानी से किया जा सकता है। नजीर देखिए -'आपको गांव में आते ही यह बधाई किसने दे दी कि मैं किसी अनचाहे विवाद में उलझ गई हूं' ।
साथ ही जेबा रशीद, दुलाराम सहारण, देवकिशन राजपुरोहित, देवदास रांकावत, नानूराम संस्कर्ता, बी.एल. माली अशांत, भंवरलाल 'भ्रमर', मंगत बादल, डॉ. मदन केवलिया, मदन गोपाल लढ़ा, मदन सैनी, मालचंद तिवाड़ी, यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र',राजेश कुमार व्यास, रानी लक्ष्मी कुमारी चूंडावत, रामस्वरूप किसान, विजय दान देथा, श्रीलाल जोशी, श्रीलाल नथमल जोशी, सांवर दइया, सावित्री चौधरी ऐसे हस्ताक्षर हैं जिनकी कहानियों का जादू सिर पर चढ़कर बोलता है। राजस्थानी की ऐसी 101 कहानियां संकलित कर उनका अनुवाद पुस्तकाकार रूप में पाठकों तक डॉ नीरज दइया ने उपलब्ध करवाया है । डॉ नीरज दइया का यह सृजन हिंदी-राजस्थानी ही नहीं वरन् तमाम भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य जगत में मील का पत्थर सिद्ध होने जा रहा है। क्योंकि डॉ दइया राज्याश्रित निकायों अथवा पूंजीपतियों के शगल स्वरूप पनपी निजी साहित्यिक संस्थाओं के मुकाबले स्व-इकाई होते हुए भी बेमिसाल नजीर के स्वरूप में इस संकलन के संपादक के रूप में अध्ययन-लेखन-परिश्रम के परिचायक एक कालजयी-सृजन को समकालीन-साहित्यिक जगत के पटल पर प्रतिष्ठित करने में सफलता अर्जित कर चुके हैं। यह सृजन इसलिए भी श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण है कि संवैधानिक मान्यता के लिए संघर्ष कर रही राजस्थानी भाषा की कहानियों की वृहद निधि में से प्रतिनिधि कहानियों का चयन करना आसान कार्य नहीं है। इस पर और भी अधिक महती कार्य यह कि इस चयनित-संकलित भंडार को अनूदित करने-करवाने का दायित्व भी डॉ. दइया ने बखूबी निर्वहन किया है। डॉ. नीरज दइया को साधुवाद । यह ठीक है कि ये सम्मति मुझ अल्पज्ञानी की है मगर यह भी विश्वास है कि निजी प्रयासों से क्षेत्रीय भाषा कथा-साहित्य जगत में संकलन, संपादन और अनुवाद का ऐसा कोष एकमेव है। मायड़ भाषा मान्यता के संघर्ष को इससे बल मिलेगा।
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पुस्तक एक नजर में-
पुस्तक का नाम : 101 राजस्थानी कहानियां (कहानी-संग्रह) संपादक- डॉ. नीरज दइया ; प्रथम संस्करण : 2019; पृष्ठ : 504 ; मूल्य-1100/-
प्रकाशक : के. एल. पचौरी प्रकाशन, डी-8,इन्द्रापुरी, लोनी, गाजियाबाद
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