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आरक्षण के बहाने : बांट तो रहे हैं... जनता को मिलेगा क्या ?

आरक्षण के बहाने : बांट तो रहे हैं... जनता को मिलेगा क्या ?

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आरक्षण के बहाने : बांट तो रहे हैं,... जनता को मिलेगा क्या?
-✍️ मोहन थानवी
किसानों की कर्ज माफी  और अब गरीब सवर्णों को 10% आरक्षण । आरक्षण तो प्रतीक्षित था  और इसके लिए सवर्णों ने आंदोलन भी किया ।  किंतु सवाल यह है कि राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिए  चुनाव सिर पर आने पर जो बांटते जा रहे हैं  वह जनता तक पहुंचेगा भी  या जनता से ही वसूल करके  फिर उसका कुछ प्रतिशत लौटाया कुछ प्रतिशत लौटाया जाएगा? इस मसले पर  राजनीतिक दलों के सिवाय  शेष सामाजिक वर्ग पूरी तरह खामोश है?  राजनीतिक दल ही  यह देंगे वह देंगे ऐसा करेंगे  इस तरह कर देंगे  इसी बात को चुनाव में उछाल रहे हैं  । जबकि देश का शेष वर्ग  यह सब सुन रहा है । हद तो तब हो जाती है  जब  राम मंदिर जैसे मुद्दों को  टीवी चैनल बहस के मुद्दे बनाते हैं  और उनमें जो वक्ता बुलाए जो वक्ता बुलाए जाते हैं  वह अपने मन की पूरी भड़ास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उड़ेलते हैं।  टीवी चैनल वालों से कौन गुजारिश करें कि जिन्हें  देश भक्ति के  दो शब्द बोलने में भी हिचक हो रही है उन्हें अपने चैनल पर बार-बार आमंत्रित करके जनता के सम्मुख  क्यों बैठा देते हैं? जनसंख्या का बड़ा वर्ग  ऐसी नकारात्मक बातें राष्ट्र के प्रति सुनना नहीं चाहता, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता  । तो फिर टीवी चैनल वाले  बहुत छोटे वर्ग के बहुत कम संख्या के लोगों को ऐसे शब्द सुना कर  अपनी टीआरपी बढ़ाने की कवायद करते ही क्यों है?  और राजनीतिक दल  समस्याओं के निवारण पर प्राथमिकता  देने की बजाय  जनता को  कुछ न कुछ बांटने में ही स्वयं को क्यों महफूज महसूस कर रहे हैं? ऐसी राजनीति तो  पहले न कभी सुनी और संभवत न किसी ने सोची सोची । जातिवाद के मुद्दे अलग से  गहराए जा रहे हैं । अभी तो नदियों के जल बंटवारे पर बात होगी,  फिर नए राज्यों के गठन की भी के गठन की भी बात चलेगी  और अंततः  बोली और भाषा के आधार पर  और भाषा को मान्यता के मुद्दों पर भी माहौल गर्माया जाएगा । यह सब जनता देखती रही है  और भविष्य की चिंता में  जनता को  यह  माहौल राजनीतिक दलों का विरोध करने के लिए भी कदम उठा पाने से  रोकता है।  किंतु राजनीतिक दलों को भूलना नहीं चाहिये कि विरोध के स्वर आंदोलन में ही परिणित नहीं हुआ करते । ऐसे   खामोशी भरे तूफान से घिरे लोग अपनी चौफुली की मोहर जनहितैषी नेताओं के चुनाव चिन्हों पर लगा लगा कर  सत्ता बदल भी देते हैं । इन बातों को राजनीतिक दल समझते हुए भी ना समझने का नाटक क्यों करते हैं?  यहां तक की  दलों के नेता-प्रवक्ता सुप्रीम कोर्ट के  निर्णय के विपरीत भी बयान बाजी बाजी बाजी कर देते हैं।  देश में  कोई मुद्दा खड़ा करने के लिहाज से  ऐसी ऐसी  बातें उखाड़ कर लाते हैं लाते हैं हैं जिन्हें  गड़े मुर्दे उखाड़ना कहा जा सकता है । बार बार  एक ही बात को सुनकर  युवा पीढ़ी भ्रमित भी होती है  तो वरिष्ठ जन  राजनीतिक दलों के प्रति उदासीन  हो जाते हैं । इससे जो जागरूकता  राजनीति और शिक्षा के प्रति  बढ़ती नजर आ रही होती है  उस पर असर पड़ता है।   विदेशों में  हमारे देश की छवि धूमिल होती है  । अभी हाल ही में  पिछले आम चुनाव से ठीक पहले की तरह ही  एक नामी गिरामी अभिनेता ने  ऐसे ऐसे बोल बोले  कि विदेशों में थू थू हो या न हो देश में ही  थू थू हुई  लेकिन देशवासी भले ही शर्मसार हुए हो  अभिनेता पर  लगता है कोई असर नहीं पड़ा । नकारात्मक बातों से  युवा पीढ़ी को सचेत रहते हुए देश के भविष्य के लिए स्वच्छ राजनीति की राह चल चल रहे नेताओं को चुनकर  देश का भला करना होगा ।

















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