इसे माया कहें...! या... मंथन करें...!!


इसे माया कहें...! या... मंथन करें...!!!

भीतर के द्वन्द्व और उमड़ते विचारों को षब्दाकार देना अज्ञान को दूर करने के लिए
ज्ञान की खोज में षब्दयात्रा है। यह भी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भले ही हो
लेकिन विचारों से किसी को ठेस पहुंचती हो तो अग्रिम क्षमायाचना। हां, विद्वानों
का मार्गदर्षन मिल जाए तो जीवन सफल हो जाए।
भारतीय संस्कृति में जीवन की सफलता की खोज अध्यात्म के माध्यम से की जाती रही
है। अध्यात्म में भी कुषल प्रबंधन को  महसूस किया है तो इसके लिए कर्म
किया जाना भी अनिवार्य लगा है। अध्यात्म में कर्म है ज्ञान प्राप्ति का
प्रयास।  और जीवन की सफलता को फल कह सकते है।
जीवन प्रबंधन से ही व्यवस्थित और सुखमय हो सकता है। बिना प्रबंधन के तो चींटी
भी नहीं जीती। चींटी ही क्यों, प्रत्येक प्राणी को समूह में जीते ही हम देखते
हैं। ऐसा कोई प्राणी नहीं जो अकेला जीता हो या आज तक जीया हो। पेड़-पौधों को भी
समूह में लहलहाना अच्छा लगता है क्योंकि वे भी बीज रूप से प्रस्फुटित होने से
लेकर मुरझाने तक एक कुषल प्रबंधन प्रणाली से विकसित होते हैं, फल देते हैं।
जीवन का मकसद ही फल देना है। गीता का संदेष है, कर्म किए जाओ फल की इच्छा मत
करो... साथ ही यह भी कोई भी कर्म बिना फल का नहीं होता। जीवन का यही प्रबंधन
है। विचार भी कर्म है। अच्छा विचारने से अच्छे की प्राप्ति होती है। मैनेजमेंट
गुरु आज भी यही कहते हैं, सदियों पूर्व वेद-षास्त्र रचे जाने से पहले भी भारतीय
संस्कृति के महर्षि ऐसा ही कहते रहे हैं। मूलमं़त्र ही यह है तो फिर भले ही
दूसरे मंत्रों को रटते रहें, असर तो मूल को सिद्ध करने पर ही होगा। जिस प्रकार
मंत्र सिद्धि के लिए ज्योतिष-योग-षास्त्र बीज मंत्रोच्चार को प्रथम सोपान मानता
है उसी प्रकार अंक गणित, बीज गणित और रेखा गणित के भी मूल सिद्धांत हैं जिनके
अनुसार प्रष्न हल न करने पर जवाब गलत ही मिलता है। प्रबंधन में बीजाक्षर है
अनुषासन और आत्म विष्वास। हम जितना प्रयत्न करेंगे हमें उतना प्रतिफल मिलेगा।
एक खेत में एक बोरी बीज बोने से यदि दो सौ बोरी अनाज पैदा हो सकता है तो चार सौ
बोरी नहीं होगा और यह भी कि यदि अनुषासन से कृषि कार्य नहीं किया तो दो सौ बोरी
भी उत्पादन नहीं होगा, हो सकता है बिल्कुल ही न हो लेकिन यहां भी गीता का संदेष
याद आता है, कर्म किया है तो फल भी मिलेगा... यहां इस खेत के उदाहरण में वो फल
खरतपवार, घास-फूस भी हो सकता है। अनुषासन, परिश्रम, आत्म विष्वास के माध्यम से
लक्षित फल प्राप्ति में सफलता मिलती है लेकिन सवाल यह है कि कर्म किए जाओ फल की
इच्छा मत करो... संदेष का क्या मतलब हुआ...! यदि फल की इच्छा ही नहीं करेंगे तो
लक्षित फल प्राप्ति के लिए विचार करना भी गलत सिद्ध होता है। और यदि कर्मफल
अवष्य मिलता है कथन को विचारते हैं तो फिर फल की चिंता किए बिना कर्म करने के
संदेष को किस रूप में ग्रणह करें...! इसे माया कहें...! या... मंथन करें...!!!

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