समकालीन चूहे और लोहे की तराजू
भेड़िया आया, रँगा सियार जैसी कहानियाँ हमेशा राह दिखाती हैँ।डरने और डराने वालोँ को। दोनों को । सभी को । आखिर लोहे की तुला और चूहे भी तो खत्म ना होवै ...। चूहे और तराजू किसके प्रतीक हैं, कथा में यह समझना उत्तर आधुनिक काल में साहित्यिक जगत में कोलाज की मीमांसा करने जैसा है । जिसे जैसा अनुभूत हो वैसा अर्थ अभिव्यक्त करे । जमाना चाहे कोई हो, अमर सँस्कृत साहित्य की कथाएँ जीवन के हर क्षेत्र मेँ प्रासँगिक लगती हैँ। समसामयिक परिप्रेक्ष्य मेँ जीवँत होती दिखती हैँ। छल कपट से भरे पात्रोँ के नकाब उतारने के अलावा ऐसी कहानियाँ मलिन विचारोँ वाले धूर्त पाखँडी लोगोँ की पहचान कराने मेँ भी सहायक हैँ। बड़े बुजुर्गोँ ऋषि मुनि व विषय विशेषज्ञ विद्वानोँ ने सुखी और सफल जीवन जीने के मँत्र साहित्य के जरिये सुरक्षित सँरक्षित रखे हैँ। पँचतँत्र, हितोपदेश लोक कथाएँ , कहावतेँ मुहावरे, लोकोक्तियाँ , लोकगीत , जनश्रुतियोँ मेँ ऐसे "मँत्र" भरे पड़े हैँ।
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