धुँआ कभी स्थिर और ठोस नहीं होता... आने वाला समय अच्छा ही होता है...ऐसे बहुत
से वाकिये होते हैं जिन्हें दफ़न कर देना ही उचित होता है! मगर बदकिस्मती से मन
की भीतरी परतों मे दफ़न ऐसे वाकिये आंसुओ के साथ बाहर झाँकने आ ही जाते हैं...!
....और ...आंसुओ को भी बाहर न आने के लिए पाबन्द किया हो तो ... फिर भावनाओ के
बहाव के साथ ज्वालामुखी के लावे की मानिंद वे दफ़न किस्से या कि वाकिये ...
द्वंद्व मचाते हुव़े चेहरे के सम्मुख धुआँ धुआँ हो आकार ले लेते हैं....यादो
के भंवर का ...! तब वे साजिशी चेहरे भी धुऐं की लकीर बन सामने आ खड़े होते हैं
...जो शाश्वत सत्य को झुठला नही सकते ... बस ...उसके इर्द-गिर्द छाये रह कर उसे
उजागर होने से रोकने की भरसक कोशिश यानी .... साजिश रचते हैं ...किन्तु ...सभी
जानते हैं... धुआँ कभी ठोस और स्थिर नहीं हो सकता ...भले ही समय लगता है किन्तु
... ऐसे में आने वाला समय ...सदा अच्छा ही होता है... ऐसी नजीर मिलने पर ...
भीतर से सदा आती है ....
साजिश में मशगूल / साजिशी को फुर्सत नहीं थी / सज्जन साजगिरी गुंजाता
/ सादगी से 'पार ' पहुँच गया.... ......( दूसरो को भटकाने वाला अपने ही
लक्ष्य से भटक जाता है और कभी मंजिल तक नहीं पहुचता जबकि अपने काम से काम रखते
हुव़े लगातार लक्ष्य की ओर बढ़ने वाले को निश्चय ही मंजिल मिल जाती है...)
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