स्वत्वाधिकार देती रही संतानों को हे ममतामयी
विदेही तुम भूमि-सी; देहार्पण किया भूमि को
परिवार;समाज; देश पर तुम सदैव न्यौछावर हो
तुमने रचे शिखर-पुरुष; युग-पुरुष
रच ली संग मृदुलता
कोख में पनपाया संतोष
तुम खुद सृजन-देवी
प्रेम की परिभाषित बनी तुम
किंतु
तुम्हें मिला हक न इनसाफ
स्वार्थों के यज्ञ में चढ़ा दिया तुम्हें बलि-वेदी पर
आंख भरी तब भी जताया न रोष
जब-जब पुरुष पर मंडराये संकट
तुम कठोर हुई भी तो आततायी के लिए
तुमने धरा रौद्र रूप
तलवार ले हुई घोड़े पर सवार स्वराज्य के लिए
दी युगों को धूप से बचाने आंचल की छांव
कोमल मन की स्वामिनी
स्व-विजयी तुम युगों से स्वजनों के रही अधीन
क्या मिला तुम्हें बतलाओ तो
अधिक न कह सकता ये जनवादी तुमसे
एक दिवस ही सही; जरा खुशी दिखलाओ तो
- मोहन थानवी
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