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जब आम आदमी अधिकार मांगता है..

Mohan Thanvi
जब आम आदमी अधिकार मांगता है...
अफरातफरी की इस बेला में राजनीति से बोझिल माहौल में भी जब आम आदमी खुद के दम पर अपने वर्ग, अपने समाज के हित में अधिकार मांगने के लिए मुट्ठियां तान लेता है तब भी...,  नहीं चाहते हुए भी राजनीति की बू से घिरा लगता है। क्यों... ? सवाल यह है कि...जब आम आदमी अधिकार मांगता है तो कैसा महसूस होता है... ? उसे खुद को, उसके साथियों को, उसके अधिकारियों को, उसके परिवारजनों को ? उसके पड़ोसियों को... उसके... उसके... उसके और उसके उन सब को... जो उसके आसपास हैं... जिनके दायरे में वह है ? जरूरी नहीं कि हर कोई वाजिब अधिकारों की ही मांग करता हो... दूसरे पहलू भी गौरतलब होते हैं। क्योंकि... अधिकार की बात जहां आती है वहां शासन और समाज के नियम कायदे, कानून, परंपरागत जीवनशैली पहले से मौजूद होना स्वाभाविक है। राजनीति होना भी बड़ी बात नहीं। पिछले दिनों ( बीकानेर में राजस्थान राज्य अभिलेखागार ) एक सेमिनार में सदियों पहले की परिस्थितियों में लोगों के एक रियासत से दूसरी रियासत की ओर पलायन पर विषय विशेषज्ञ की विवेचना सुनने का अवसर मिला। इन प्रखर वक्ता का कहना था, तत्कालीन परिस्थितियों में जब आम आदमी की आय बढ़ने का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता तब भी उस पर करों का बोझ लाद दिया जाता तब वह राहत पाने एक से दूसरी रियासत की ओर बढ़ता मगर ... चहुंओर एक-सी स्थिति में उसे राहत मिलना तो दूर बल्कि पीढ़ियों से स्थापित अपने गृह-गांव, जमीन-जायदाद से भी वंचित हो जाता था। विचार उमड़ता है... ... ऐसे में आम आदमी के अधिकार की बात कौन उठाए... वह खुद अपने अधिकार कैसे और किससे मांगे ? स्थितियों से संघर्ष कर शायद वह सफल हो सके लेकिन पलायन को तो पराजय के समान माना जाता है। यूं भी अधिकांश मामलों में पलायन कर्ता अकेला हो जाता है ... या नहीं ? पलायन चाहे सामूहिक रूप से होता रहा हो किंतु कुछ परिस्थितियों को छोड़ कर पलायन को अच्छी बात के रूप में नहीं लिया जा सकता...। क्योंकि... कतिपय अपवाद की स्थितियांें को छोड़ कर संभवतः अधिकार एक अकेले का जाया जन्मा नहीं हो सकता। अधिकार कम से कम दो जनों के मध्य होना चाहिए... शायद... ! इस सोच के मध्य नजर अधिकार पाने वाले को दूसरे, तीसरे... चौथे... अनेकानेक पक्षों के अधिकार का भी भान होना चाहिए... शायद ऐसा हो... शायद ऐसा न होता हो। जब आम आदमी अधिकार मांगता है तो सर्वप्रथम उसे यह महसूस होता होगा... वह जागरूक हो गया है अपने अधिकारों के प्रति। मगर क्या उसे यह महसूस नहीं होता होगा कि वह अन्य पक्षों के लिए भी जागरूक है... या फिर ... उसे दूसरों के प्रति भी जागरूक होना चाहिए ! कई मायनों में आम आदमी का अधिकार मांगना बहुत अच्छा लगता है... खासतौर से तब जब उसके मांगे हुए अधिकारों में ‘‘सर्व समाज’’ का भी लाभ निहित होता है। समाज और शासन से जुड़े विषयों पर जागरूकता एक अच्छी बात है मगर राजनीति के नजरिये से जागरूकता के कई पहलू दिखाई देते हैं... खासतौर से चुनावी वातावरण में ऐसा महसूस होता है मानो अधिकारों की बात कह कर राजनीतिक दुनिया से जुड़े लोग अपने वोट बैंक के सदस्य बढ़ाने की मार्केटिंग करने निकल पड़े हों। ऐसे में आम आदमी जब खुद के दम पर अपने वर्ग, अपने समाज के हित में अधिकार मांगने के लिए मुट्ठियां तान लेता है तब भी...,  नहीं चाहते हुए भी राजनीति की बू से घिरा लगता है।

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