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वह यूं ही भागता रहा उसके पीछे.... उसकी चाहत बेनूर ही रही चुनाव होते रहे

वह यूं ही भागता रहा उसके पीछे...
इंद्रधनुष को पकड़ने
वह कल से आज तक
भागता रहा
हर बार वह बस...
थोड़ी दूर ही रह गया
उसके हाथ न आया।

मंदिर-मस्जिद, चर्च-गुरुद्वारा
वह हर दिन जाता
शीष नवाता
प्रार्थना करता
प्रसाद पाता
प्रवचन सुनता।
शांति की चाह में
उद्वेलित मन से जाता
अषांत ही लौटता
वह भागता रहा
कल से आज तक
श्ंाांति की चाह में।

खेत-खलिहान में पसीना बहाया
पषुधन के साथ भरी दोपहरी
अंधेरी रातों में
टाट बिछा
धुआं-धुआं फिजां
धुंधलाती रोषनी
भूखा पेट
वह सालों से सोया
सोचता था  
उठेगा तो सुनहरा कल होगा
नींद में जागा-जागा- सा...


...वह भागता रहा
सुनहरे भविष्य के पीछे

उसकी तमन्नाओं की तस्वीर  
रंगों को तरसती रही
वह कुंची लिए
जीवन तलाषता रहा
केनवास पर उकेरी
रेखाओं को
गहरा देने की
उसकी
चाहत
बेनूर ही रही
चुनाव होते रहे
वह 55 का हो गया
बचपन के पीछे
भागता रहा

वह तरसता रहा
मां की गोद
पिता के स्नेह पाने 
और दादा-दादी
नाना-नानी से कहानी
सुनने को
कापी-किताबों का बोझ
उसके बस्ते में था
ज्ञान पाने को बेताब
वह
रोजगार पाने के लिए
भागता रहा 
निठल्ले लोगों के हुजूम के पीछे 
भागता रहा
भागता रहा।

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