Dahar sen jaga raha
मोहन थानवी
जागो... सिंधुपति दाहर सेन का बलिदान जगा रहा है
जम्बू द्वीप ऋषियों-मुनियों यानी ब्राह्मणों का वृहद, अखंड और सांस्कृतिक वैभव से समृद्ध भूखंड रहा है। कालान्तर में धरा के इस खंड को भारत के नाम से जाना गया। इस भूखंड के केंद्र में तत्कालीन सिंधु देश रहा है। इसी सिंधु देश में प्रवाहित सिंधु नदी के तट पर वेद-पुराणों का सृजन हुआ। इसके प्रमाण रामायण आदि महाग्रंथों में मिलते हैं। ब्राह्मणों के वास वाली ऐसी महान भूमि सिंध पर अनेक शासकों ने राज किया।
सिंध की पृष्ठभूमि और दाहरसेन का संघर्ष : 327 वर्ष ईस्वी पूर्व अत्याचारी सिकंदर ने सिंध पर आक्रमण किया। सिकंदर की सेना अन्य देशों को रौंदती सिंध पर काबिज होने के बाद सोने की चिडिय़ा भारत पर राज करने के ख्वाब पाले हुए थी। सीमा पर सिंध और पंजाब की सेनाओं ने इनका कड़ा मुकाबला किया। सिकंदर घायल हो गया और उसने सीमा पर ही प्राण त्याग दिए। सिकंदर के बाद 163 वर्ष ईस्वी पूर्व मगध, गुजरात, काठियावाड़, पंजाब, मथुरा, सिंध आदि पर मनिन्दर का आक्रमण हुआ। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार मनिन्दर के बाद सात यवन बादशाहों के आक्रमण हुए। उन सब को सिंध के प्राचीन महाराजाओं ने मौत के घाट उतार दिया। इन यवन राजाओं के अलावा तुषार (शक) जाति के राजाओं ने भी आक्रमण किया। संस्कृत ग्रन्थों में इन्हें तुषार, निशक और देवपुत्र के नाम से संबोधित किया गया है। सिंध पर अरबों के आक्रमण से लगभग डेढ़ सदी पूर्व रायदेवल नामक एक हिंदू राजा सिंध पर राज करता था। उसके बाद राय साहसी पहला, राय साहसी दूसरा सिंहासन पर बैठे। राय घराने के उन राजाओं ने कुल 137 साल तक राज्य किया।
इसी क्रम में सिंध के अंतिम ब्राह्मण महाराजा दाहरसेन ( 669 - 712 ) वीर महापराक्रमी गौ तथा मातृशक्ति के रक्षक थे। इन्होंने अपने सिंध राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। महाराजा दाहरसेन के समय में ही अरबों ने सर्वप्रथम भारत (सिंध) पर आक्रमण किया था। इराक़ के मुसलमान सूबेदार अलहज्जाज ने कई बार चढ़ाई की, किन्तु राजा दाहर ने उसकी फ़ौजों को पराजित कर दिया। मोहम्मद बिन कासिम ने सन् 712 में सिंध पर आक्रमण किया था जहां पर राजा दाहर ने उन्हें रोका और उनके साथ युद्ध लड़ा ।
दगाबाज मोक्षवास - सिंधुपति महाराजा दाहरसेन ग्रीष्मकाल का समय रावर नामक स्थान पर व्यतीत किया करते थे और सर्दी ब्राह्मणवाद और बसंत ऋतु में अलोर (अरोद्रा) में बिताते थे। सिंधुपति महाराजा दाहरसेन भारत के वीर, सरहद के राखा, हिंदू कुल के रक्षक तीरंदाजी में प्रसिद्ध थे। उनके पास भारी मजबूत शूल था, जिसमें सुदर्शन चक्र की तरह चक्र था । 710 ई. में अरब के खलीफा ने अपने नौजवान भतीजे व नाती इमाम अल्दीन मोहम्मद बिन कासिम को सिंध पर आक्रमण के लिए भारी सेना के भेजा। यह सेना कुछ समुद्री मार्ग से और कुछ मकरान के रास्ते सिंध की ओर बढ़ी। अंत में मोहम्मद बिन कासिम का भारी लश्कर 711 ईस्वी में मुहर्रम माह की दसवीं तारीख को सिंध के देवल बंदरगाह पर पहुंचा। धोखा देकर मोहम्मद बिन कासिम ने दाहरसेन के बौद्ध अनुयायियों मोक्षवास आदि ओहदेदारों से गद्दारी करवाई और देवल बंदरगाह को अपने कब्जे में कर लिया। महाराजा दाहरसेन खलीफो के मीर कासिम बिन के साथ युद्ध में धोखे से मारे गए और 16 जून 712 ई को वीर गति प्राप्त हुए। अरबी आक्रमणकारियों ने छोटी आयु के राजा दाहरसेन के राज्य संभालने की बातें सुनी तो सिंधु पर आक्रमण कर दिया तब दाहिरसेन स्वयं युद्धभूमि में पहुंचा और मातृभूमि की रक्षा की। ऐसा कई बार हुआ। विदेशी आक्रमणकारियों ने बार बार अपनी पराजय होती देख चाल चली और युद्धभूमि में औरतों के भेष में सैनिकों ने सहायता की गुहार लगाई। औरतों की रक्षा के लिए दाहिरसेन अकेला ही उस ओर चल दिया जहां दुश्मन षड्यंत्र रचे बैठा था। दाहरसेन ने अंत समय तक दुश्मनों को मौत के घाट उतारा। गद्दार मंत्री मोक्षवास और उसके भाई रासाल तथा अरबी आक्रमणकारी सेना के शुजाह हब्शी का शीश धड़ से अलग करने का उल्लेख भी कुछ लेखकों ने किया है। महाराजा की सूर्य परमाल नामक पुत्रियों की वीरता एवं दुश्मनों से बदला लेने तथा तत्कालीन सिंध देश की रानी लाड़ी और अलोर किले में रहने वाली औरतों के जौहर करने के प्रसंग भी अमर हैं। महाराजा दाहर सेन की वीरांगना पुत्रियों ने बाद में, बहुत ही बहादुरी से अरब सेनापति मुहम्मद बिन क़ासिम से अपने पिता की मृत्यु का बदला लिया और सिंधु नारी की अस्मिता के लिए स्वयं को आहूत कर दिया। स्मरण रहे, सन् 712 से पहले किसी जौहर की जानकारी दस्तावेजों में नहीं मिलती है, इसी कारण इसे पहला जौहर कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी । दाहिर सेन के दो पुत्रों जयसिंह और गोप का उल्लेख भी कतिपय आलेखों में मिलता है। सिंध बारे में केवल चचनामा लिखित स्रोतों में से एक है, और इसलिए कुछ लोग चचनामा को एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पाठ मानते हैं, हालांकि इसके प्रभाव बहुत विवादित हैं। बताते चलें कि सिंध पर मुसलमानों का अधिकार 1845 ई. तक रहा। इस बीच इसे मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने एक महत्त्वपूर्ण सूबा भी बनाया था। बाद के समय में यहाँ के मुस्लिम अमीरों को जनरल नेपियर ने मियानी के युद्ध में हराकर इस प्रांत को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। मातृभूमि की अस्मिता के लिए महाराजा दाहिर सेन एवं उसकी रानी, बेटियों एवं सिंधु की नारियों ने स्वयं का बलिदान दिया, वह बलिदान हमें जाग्रत कर रहा है। जागो... भारत को अखंड बनाए रखने के लिए। जागृति के पहले सोपान में अजमेर नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष ओंकार सिंह लखावत के प्रयासों से अजमेर के हरिभाऊ उपाध्याय नगर विस्तार में सिंधुपति महाराजा दाहरसेन का स्मारक निर्मित करवाया गया। स्मारक हूबहू अलोर के किले की शक्ल में है तथा परिसर में स्वामी विवेकानंद, गुरु नानकदेव, झूलेलाल, संत कंवरराम एवं हिंगलाज माता की मूर्तियां भी अलग-अलग पहाडिय़ों पर स्थापित करर्वाइं गई हैं। दीर्घाओं में सम्राट दाहरसेन के बलिदान और संघर्ष की कहानी चित्रों में दर्शायी गई है। यहां प्राकृतिक गुफाएं देखने लायक हैं। यहा हर साल दाहरसेन के बलिदान दिवस व जयंती पर कार्यक्रम होते हैं। यहां पर्यटकों आना-जाना रहता है। इसका उद्धाटन 1 मई 1997 को पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत ने किया था। उन्होंने सिंधुपति को नमन करते हुए कहा था, सिंधुपति महाराजा दाहिर सेन के जीवन से देश रक्षा की शिक्षा मिलती है। सिंध और सिंधु के बिना हिन्दुस्तान की कल्पना नहीं की जा सकती। इसी प्रकार पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल एवं संत शिरोमणि हृदय राम जी ने भी स्मारक स्थल पर सिंध और दाहरसेन के बारे में अपनी बात रखी थी।
सिंधुपति दाहरसेन का 1307वां बलिदान दिवस पर हम सभी उनके बलिदान को नमन करते हैं। हम सिंधु की मातृशक्ति को भी बारम्बार प्रणाम करते हैं। मातृशक्ति के बल पर ही सिंधु देश की सामाजिक, सांस्कृतिक विरासत सदियों से पुष्पित-पल्लवित होती रही। युद्ध की विभीषिका के चलते परिस्थितियां ऐसी बनी कि लोगों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा। धर्म परिवर्तन के लिए विदेशी अरबी आक्रमणकारी लोगों को मजबूर करते थे। इसीलिए लोग सिंधु से निकलकर तत्कालीन नजदीकी देशों में जाकर रहने लगे। इनमें ब्राह्मण भी शामिल हैं। इसीलिए सिंधु देश की सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को पुष्करणा ब्राह्मणों सहित तमाम समुदायों की परम्पराओं में देखा जा सकता है।
दाहरसेन के पिता राजा चच के पुष्करणा ब्राह्मण होने के संकेत तवारीख जैसलमेर के एक पृष्ठ से मिलते हैं जिसपर अंकित है ‘‘ ... जो कि मुल्क सिंध में राजाओं के नाम दीवान वीलाराम में तवारीख में लिखे हैं सो 1100 वर्ष हुए रायजी वेचैन हुय मर गये व बेटा ( साहसी राय ) भी मरे। पुनःराजकर्ना चच ब्राह्मणों का व विवाहकर्ता साहसी की वधु से व उसके पु. का हाल फेर अर्ब से फौजें आकर हिन्दुओं से यवन व मन्द्रों से मशीते बनाय बहुत आदमी व धन माल ले गऐ सो हाल चचनामा में है। .... “ - - पुष्करणा ब्राह्मणों के आधिक्य वाला कहा जाने वाले जैसलमेर, फलोदी की सीमाएं सिंधु की सीमा से लगती है और किसी समय इन क्षेत्रों से जीवनयापन के लिए ब्राह्मण परिवार सिंधु में जाकर रहे तथा बहुत से परिवार सिंधु से जैसलमेर-फलोदी में आकर रहे।
इतिहास के विद्यार्थी यह भलीभांति जानते समझते हैं कि राज्यों से प्रजा के पलायन का क्रम परिवर्तन के साथ जारी रहता आया है। यही कारण है कि सिंधुवासियों में से अनेक यह कहते हैं कि उनके पूर्वज जैसलमेर के थे तो अन्य स्थानों पर रह रहे पुष्करणा ब्राह्मणों के परिवार यह मानते हैं कि कभी उनके पूर्वज सिंधु में रहते थे। इसका सबसे अच्छा उदाहरण बीकानेर में करांची वालों की गली में मिलता है। यह गली के नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि सैकड़ों वर्षों से वहां रह रहे परिवार कभी करांची से बीकानेर आए थे। इसी प्रकार बीकानेर का हर्षोलाव का तालाब भी रोहिड़ी-सक्खर के एक तालाब की प्रतिकृति लगता है। हर्षोल्लाव की सारसंभाल करने वाली समिति के माननीय एसएल हर्ष जी इस कथ्य को और अधिक स्पष्ट तरीके से बता सकते हैं। यहां प्रासंगिक होगा कि सिंध देश में ब्राह्मणों के आगमन को रेखांकित करने वाली पुराणों की एक कथा का उल्लेख किया जाए, श्री के आर मलकानी की पुस्तक द सिंध स्टोरी में उल्लेख है कि महाभारत काल में दुर्योधन से अपनी भांजी दुशाला या विशला की प्रार्थना पर सिंध के संस्कृति युक्त सामाजिक जीवन के सुखद परिणाम हेतु 30 हजार ब्राह्मणो को सिंध भेजा। यानी महाभारत काल से ब्राह्मण सिंध के निवासी रहे हैं। इसी कारण आज भी पुष्करणा ब्राह्मण अपना उद्गम स्थल जैसलमेर और सिंध को मानते हैं। अलोर - सिंध की राजधानी अलोर प्राकृतिक एवं नैसर्गिक छटाओं से युक्त मिहरान नदी के तट पर बसा भव्य नगर था। राजा सिहारस के पुत्र साहसी के बाद यहां ब्राह्मण चचवंश का शासन स्थापित हुआ। सिंध की सीमा पूर्व में काश्मीर, पश्चिम में मकरान, दक्षिण में समुद्र तट एवं देवल था। बीच में कुरदान एवं कैकानन की पर्वत श्रृंखलाएं थी। सिंध के सुशासन के लिए चार राज्यपाल नियुक्त थे जिनमें 1 ब्राह्मणाबाद एवं निरून, देवल, लोहाना, लाखा एवं सम्मा के किले 2 सिविस्तान के अधीन बुधपुर, जानका एवं रूजहां की लहटी मकरान की सीमा तक 3 अस्कलंदा का दुर्ग एवं पबीया जिसे तलवाड़ा एवं चचपुर के नाम से जाना जाता है। 4 मुलतान, सिक्का, ब्रह्मापुर, करूर, आशाहर एवं कन्बा काश्मीर की सीमा तक। अलोर, सिंध की राजधानी का प्राचीन नाम रोरक था। सिल्वेन लेवी ने सौवीर को लेकर एक श्लोक प्रस्तुत किया है - दन्तपुरं कलिड्डनाअस्सका नाञच पोअनम् । माहिस्सती अवन्तीनां नाचं रोरकम् ।। इस श्लोक के अनुसार रोरक नाम का नगर ही सौवीरों की राजधानी थी। इस रोरक नगर को अरबी ग्रंथों के अलरूर नाम दिया गया है। स्टेन कोनी प्रभृति पंडितों के अनुसार वर्तमान रोडी अथवा रोहरी ही यह स्थान है - अलबरूनी मुलतान तथा जहावार को सौवीर मानते हैं। महाभारत में सिन्धु राज्य के विवरण में सिंधु राष्ट्र मुखानीह दशराष्ट्राणि यानि है। यानी महाभारत के समय सिंधु राष्ट्र में दस राज्यों का समावेश था।
ऐसी महान तत्कालीन सिंधु देश में बोलचाल की भाषा सिंधी रही लेकिन सभी निवासियों का खानपान, रीति-रिवाज समान न होते हुए अपने अपने जाति समुदाय के अनुसार था। इसकी झलक आज भी विविध रंगों में दिखाई देती है। महाराजा दाहरसेन पुष्करणा ब्राह्मण थे, उनके दादा सेलाजी अलोर के नजदीकी चचपुर में रहते थे, इसका उल्लेख चचनामा में है। ( यह मेरा आकलन है कि उनके पुत्र राजा चच का नाम संभवतया गांव के नाम से रखा गया और उनका उपनाम व्यास खांप में चूरा रहा होगा जो कि कुशिक गोत्री, सामवेदी पुष्करणा ब्राह्मण हैं, ज्ञात रहे कि अतीत में जातियों के नाम पर भी गांवों के नाम रखे जाते थे और प्रतीत होता है चूरा परिवारों से चचपुर गांव बसा। ) ब्राह्मण कुल को गौरवान्वित करने वाले चच के शासन काल का वृतांत मिर्जा कलीचबेग लिखित एवं सन् 1900 में प्रकाशित चचनामा में मिलता है। सिंधुपति दाहरसेन के बारे में चचनामा में मात्र उल्लेख है। अन्य स्रोतों से ज्ञात होता है कि ब्राह्मण महाराजा दाहिरसेन के दो पुत्र थे, गोप और जयसिंह। जयसिंह को राजमाता सुहंदी ने युद्ध की विभीषिका के चलते सिंधु देश के पूर्व की ओर जाने को कहा था और जयसिंह संभवतः अजमेर पहुंचे थे।
पुष्करणा ब्राह्मणों की सांस्कृतिक, सामाजिक परम्पराओं और सिंधु परम्पराओं में काफी हद तक समानता है। उदाहरण के लिए सिंधी लोकनृत्य छेज, टपरो, झुमिरि, आसीगोरी, समाउ और सिंधी लोकगीत लाडो, लोली, साखी, छलो, बेलुन के विभिन्न लोकरूप हमें आज राजस्थानी झूमर, टप्पा, विवाहगीत लाडे, बन्ना, पंजाबी लोकगीत छलो गुजराती गरबा, डांडिया आदि काफी हैं। बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त काफी सिंधी शब्दों को लगभग समान अर्थों में गुजराती, पंजाबी, राजस्थानी में भी सुना जा सकता है। एक सिंधी लोकगीत काफी मशहूर है, होजमालो। इसके बोल हैं - जेको खटी इन्दो खैर सां होजमालो... । इसमें खैर का मतलब बताने की आवश्यकता ही नहीं है। खटी शब्द पर गौर करें, सिंधी लोकगीत में इसका अर्थ है जीतकर, कमाकर, मेहनतकर। खटी को राजस्थानी में भी बोला जाता है, दिनभर खटतो रैयो। पंजाबी में भी बोलते हैं - जरा चुक किती, सारी खटी-कमाई विञा डिती। जीवन के 16 संस्कारों की समानता की तरह ही पुष्करणा ब्राह्मणों और सिंधु वासियों के पहरावे में भी काफी समानता है। विवाह समारोहों में ञंञ यानी जान, जनासा, बारात आदि अनेक शब्द तथा वर को दूध पिलाना, वधू की छिकी अथवा डोली की परम्परा, विष्णुरूपी वेश में वर को पुष्करणा ब्राह्मणों के साथ साथ सिंधु वासियों की परम्परा में भी देखा जा सकता है। हालांकि कालांतर के कारण अब पहरावे पर पाश्चात्य और परम्पराओं पर स्थानीय प्रभाव दिखाई देने लगा है। इसी प्रकार सिंधी परिवारों में मातृशक्ति के पहरावे पर अरबी तथा स्थानीय प्रभाव नजर आता है।
सिंधी वरकी, यानी व्यापारी खानपान में परहेज नहीं करते थे तो ब्राह्मण लहसून प्याज मांस मदिरा आदि से दूर रहते थे। सिंधु की राजधानी अलोर से पलायन करने वाले वरकी, व्यापारी स्वयं को अरोड़ा कहलाते हैं। तत्कालीन सिंधु देश से निकल कर विभिन्न देशों, राज्यों में निवास कर रही ब्राह्मण कुल के अलावा भी कई जातियां, जो बोलती तो आज भी सिंधी में हैं किंतु उनकी दिनचर्या ब्राह्मणों के समान है। उदाहरण के लिए भाटिया। भाटिया परिवार वैष्णव संप्रदाय की परम्परा को अपनाए हुए हैं।
ब्राह्मण राजा चच ने (लगभग 610-671 ईसवी) सातवीं शताब्दी के मध्य में सिंध पर राज किया था। वह एक मंत्री और राजा राय साहसी (दूसरे) का प्रमुख सलाहकार था। राजा के मरने के बाद उनकी विधवा रानी से शादी कर के वह सत्तासीन हो गया। ( इस विवाह प्रकरण के भी एकाधिक उल्लेख मिलते हैं जिनमें से एक का उल्लेख हम आगे करेंगे। ) चच ने अपने साम्राज्य को दूर-दूर तक फैलाया। उसके आसपास के छोटे-२ राज्यों, कबीलों और सिंधु घाटी के अन्य स्वतन्त्र गुटों को अपने साम्राज्य में मिलाने के साहसिक व सफल प्रयासों की दास्तान चचनामा में लिखी हुई है। मिर्जा कलीच बेग लिखित चचनामा के पेज 33-34 पर उल्लेख है कि सिंधु राजा राय साहसी के दरबार में ब्राह्मण वजीर के पास पहुंचकर सेलाजी ब्राह्मण के पुत्र चच ने चारों पुस्तकें (वेद) कंठस्थ होने का दावा किया व राज में काम मांगा, वजीर का सहायक बना, राजा राय साहसी को अपने कार्य एवं विद्वता से प्रभावित किया। कालांतर में चच पर महारानी सुहंदी आसक्त हो गई। राजा राय साहसी ने अपने अंतिम समय में चच और महारानी सुहंदी को जीवनसाथी बनाने की बात कही। चच ने सिंधु राज्य का शासन न केवल संभाला वरन अपने भाई चंद्र की सहायता से चहुंदिशाओं में सीमाओं का विस्तार किया । जब राजा चच का निधन हुआ तब उनका पुत्र दाहरसेन और पुत्री पदमा छोटी आयु के थे, चाचा चंद्र ने दाहरसेन की ओर से शासन संभाला। कुछ आलेखों में चच की दूसरी पत्नी से एक कन्या के होने का व उसके साथ महाराजा दाहर सेन के प्रतीकात्मक विवाह की भ्रामक बातें कतिपय आलेखों में कही गई हैं । दरअसल, उंगलियों पर गिनी जा सकने वाले कुछ पन्नों में सिंध के प्रसंगों को जगह मिली है और उसे भी किसी भारतीय ने नहीं अपितु विदेशी अरबी या बाद में अंग्रेज लेखकों ने ही लिखा है। जाहिर है, ऐसे प्रसंगों में सिंधु नरेशों की वीरता और सामाजिक सांस्कृतिक वर्णन की जगह विदेशी अरबी आक्रमणकारियों का ही गान दर्ज होगा। इसी तरह 8 वीं शताब्दी के शुरुआती दशक में मुहम्मद बिन कासिम की विजय की कहानियों के साथ, 13 वीं शताब्दी के अनुवाद और अन्य संस्करणों अनुवादों के तथ्य कथ्य में सहूलियत भरा लचीलापन सिंध के राजाओं के गौरव को पृष्ठ भाग में धकेलता प्रतीत होता है। चच के भाई चंद्र के बौद्ध अनुयायी होने का उल्लेख भी कुछ लेखकों ने किया है। आश्चर्यजनक बात है कि स्वतंत्र भारत में महान सिंधु और सिंधु वासियों का इतिहास, सांस्कृतिक लोकजीवन नहीं के बराबर नजर आता है किंतु सिंधु प्रदेश पर आक्रमणों की कहानी पाकिस्तान के राज्य द्वारा स्वीकृत इतिहास पाठ्य पुस्तकों का एक हिस्सा रही है, लेकिन वास्तविकता में पाठ मूल और “अनुवाद का काम नहीं“ है क्योंकि इसमें सिंधु नरेशों के वर्णन को दरकिनार करते हुए मात्र अरबी आक्रमणकारियों को केन्द्र में स्थान दिया गया है। जबकि मनन अहमद आसिफ के अनुसार, चच और दाहरसेन समेत रानियों के जौहर सबंधी यह पाठ महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सिंध क्षेत्र के माध्यम से भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम के उद्गम के औपनिवेशिक समझ का एक स्रोत बना और ब्रिटिश भारत के विभाजन पर बहस को प्रभावित किया था।
राजा राय साहसी, रानी सुहंदी और उनकी सेना में ओहदेदार ब्राह्मण चच के संबंधों की यह एक रोमांचक मगर भ्रमों से उलझी गुत्थी वाली दास्तां है जिसके उल्लेख वाले इतिहास के पन्नों की तलाश खत्म होने का नाम नहीं लेती। ज्ञात रहे कि मूल चचनामा (सिन्धीः चचनामो چچ نامو), सिन्ध के इतिहास से सम्बन्धित एक पुस्तक है। इसका लेखक ’अली अहमद’ है। इसमें चच राजवंश के इतिहास तथा अरबों द्वारा सिंध विजय का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक को ’फतहनामा सिन्ध’ (सिन्धीः فتح نامه سنڌ), तथा ’तारीख़ अल-हिन्द वस-सिन्द’ (अरबीः تاريخ الهند والسند), भी कहते हैं। जबकि सन 1900 में प्रकाशित चचनामा कलीचबेग अनूदित है और इसमें उल्लेख है कि चच राजवंश ने राय राजवंश की समाप्ति पर सिन्ध पर शासन किया। यह हम जानते ही हैं कि चचवंश का अंत सिंधुपति दाहरसेन के युद्धभूमि में अरबी आक्रमणकारियों के षड्यंत्र के चलते बलिदान से हुआ। - ✍️ मोहन थानवी
समाप्त
शोधपरक लेखन - सिंधी भाषा साहित्य एवं कला संस्कृति तथा
सिंधु देश एवं महाराजा दाहरसेन को लेकर विद्वानों ने अपनी पुस्तका ें में
अनेक लेख लिखे हैं। पाकिस्तान में 1962 में रज्जियूद्दीन सिद्दीकी ने
जामशेरा में सिंधॉलॉजी की स्थापना की। हालांकि 21वीं सदी के दूसरे
दशक के मध्य तक इसका लाभ भारत में नहीं लिया जा सका किंतु
आज इंटरनेट के माध्यम से कुछ शोधकार्यों की जानकारी हमें मिल
सकती है। जबकि भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के काफी समय पश्चात
1989 में कच्छ-भुज में सिंधॉलॉजी की स्थापना की गई जहां लेखक
शोधकार्य करते ही रहते हैं। इसके डायरेक्टर कमल निहलानी हैं।
लखमी खिलाणी सिंधॉलॉजी का जाना माना नाम है। पता -
ैपदकीवसवहल चवेज इवग दं 10श् ूंक 4 ।य ानजबीश् ंकपचनतश्
हनरतंज 370205 वेबसाइट ूूण्ेपदकीवसवहलण्वतह साहित्यिक
रचनाओं में सिंध ुभूमि और महापुरुषों पर लिखने वालों में वासुदेव सिंधु
भारती, वासदेव मा ेही, सतीश रोहड़ा, मोतीलाल जोतवानी, लखमी
खिलाणी, ओंकार सिंह लखावत, कन्हैयालाल अगनानी, भगवान अटलानी,
सुरभि के संपादक लक्ष्मण भम्भाणी, राधाकिशन चांदवानी, मा ेहन थानवी
सहित अन्य।
संदर्भ - आर्य और वेद : पं जगन्नाथ पंचौली गौड़/ महाभारत/
जय साधुबेला : पं सीताराम चतुर्वेदी/ आओ हिंद में सिंध बनाएं : हेमंत
कुमार सिंह/ भारत जे सिन्ध्युनि डे : जयराम दासु दौलतरामु/ दाहर
अथवा सिंध पतन : उदय शंकर भट्ट/ सिंध ुपति महाराजा दाहरसेन :
नवलराय बच्चाणी/ सिंध और सिंधी : साधु टी एल वासवानी/ प्राचीन
सिंधु सभ्यता : द्वारका प्रसाद शर्मा / सिंधी लोक कला : डा नारायण
भारती/ द डिस्कवरी आफ इंडिया का हिंदी अनुवाद : जवाहरलाल
नेहरू/ हिंगलाल शक्तिपीठ : ओंकार सिंह लखावत/ राजस्थान सिंधी
अकादमी के सहयोग से प्रकाशित उपन्यास कूचु ऐं शिकस्त : मोहन
थानवी/ मेरा देश मेरा जीवन : लालकृष्ण आडवानी/ दि सिंध स्टोरी :
के आर मलकानी/ सिंधुपति महाराज श्री चचदेव : श्याम सुन्दर भट्ट/
हालात : राजस्थान सिंधी अकादमी क े सहयोग से प्रकाशित कविता
संग्रह - मोहन थानवी तवारीख जैसलमेर : मेहता दीवान नथमल की
आज्ञानुसार लखमीचन्द द्वारा लिखित/ अलबरूनी कालीन भारत : डा
शाहिद अहमद/ चचनामा : कलीच बेग सन् 1900 संस्करण 2008 /
राष्ट्रीय स्वयं सेवक स ंघ सिन्धु जो सफर : गोविंद मोटवाणी,
सम्पादक : झमटमल वाधवाणी/ सिंधू संसार : थधाराम पंजवाणी/
दाहर सेन : राजस्थान सिंधी अकादमी की पत्रिका रिहाण में मोहन
थानवी का नाटक / गजनी से जैसलमेर : हरिसिंह भाटी/ सिंधी
साहित्य का पुष्प : प्रो पोपटी हिरानन्दानी/ द हिन्दू व्यू आफ लाइफ :
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन/ संसार का सिरमौर सिंध और महाराजा दाहर
सेन : ओंकार सिंह लखावत ।। इति।।
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