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राष्ट्रीय संस्कृति उत्सव : व्याख्यान भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है अद्वैत: नन्दितेश निलय













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राष्ट्रीय संस्कृति उत्सव : व्याख्यान

भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है अद्वैत: नन्दितेश निलय


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राष्ट्रीय संस्कृति उत्सव : व्याख्यान

भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है अद्वैत: नन्दितेश निलय

बीकानेर, 4 मार्च। विचारक, लेखक एवं चिंतक नन्दितेश निलय ने कहा कि भारतीय संस्कृति का मूल तत्व अद्वैत है अर्थात सब एक हैं, समान है। उन्होंने कहा कि हमारे सांस्कृतिक मूल्य सद्भाव, सदाचार और प्रेम का संदेश देते हैं। इसी विचार को हम आत्मसात कर आगे बढ़ेंगेे और समूचे विश्व का मार्गदर्शन करेंगे। वे डॉ. करणी सिंह स्टेडियम में चल रहे राष्ट्रीय संस्कति महोत्सव में शनिवार शाम भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित व्याख्यान दे रहे थे। 
उन्होंने सभ्यता और संस्कृति का परिचय देते हुए समाज के मूल्यों की ओर इशारा किया। उन्होंने क​हा कि सभ्यता वो सब कुछ है, जो हमने हासिल किया, और इसमें व्याप्त भाव ही संस्कृति है। अगर हमने शिक्षा हासिल की तो हमारा व्यवहार और मूल्य ही हमारी संस्कृति है। आज हमने तकनीक को हासिल किया है, फोन, लैपटॉप, सब कुछ हासिल किया है पर हम उसको जैसे प्रयोग में लाते हैं, फोन पर कितना समय गुजारते हैं और क्या देखते और बोलते हैं, यही हमारी संस्कृति का हिस्सा बन जाता है। घर बनाना, सजाना सभ्यता है, लेकिन एक परिवार की आवाज सुनना और मिलजुल कर रहना संस्कृति हैं। फिर, संस्कृति सिर्फ एक नहीं होती, बल्कि एक कुंभ का भाव लिए रहती है। सभी भावों को समेटकर एक इंसानियत का रंग संस्कृति ही देती है। उन्होंने कहा कि होली के रंग, संस्कृति के संग यानी उन मूल्यों वाली संस्कृति जिसने प्रेम, भाईचारा, खुशी और शांति को प्रमुख रंग बनाया। आज हमारा देश इन्हीं सांस्कृतिक मूल्यों के साथ आगे बढ़ रहा है और संसार को भी इस रंग में रंग रहा है।
भारत ने सभी को शरण दी और किसी के साथ भेद नहीं किया। जीवन के जितने द्वैत थे वो भी हमारी संस्कृति के हिस्सा बने, लेकिन एक ऐसा भी वक्त आया जब अद्वैत ही हमारी संस्कृति बन गई। उन्होंने कहा कि साहस, सेवा और सद्भाव ही भारत की संस्कृति है और यही संस्कृति इस प्रथ्वी की आवश्यकता भी है।
उन्होंने संस्कृति और सभ्यता को परिलक्षित करती वे कविताएं भी सुनाई-

बेटी, तुम्हें मैं क्या लिखूं
सुबह की पहली धूप लिखूं
या इंद्रधनुषी रूप लिखूं
बेटी तुम्हें मैं क्या लिखूं
बंद मुट्ठी
और अनगिनत खिलोने
सारे दुःख लगते हैं बौने
सच्चाई लिखूं
परछाई लिखूं
मेरे सपनो की भरपाई लिखूं
बेटी , तुम्हें मैं क्या लिखूं।
....

पिता को समझना
जैसे आकाश को अनंत देखना
अपने अंतर्मन को टटोलना
कुछ बड़ा और कुछ विस्तृत बनना
कहीं यही तो नही होता
पिता को समझना
वो हल्की सी डांट
वो भारी सी चिंता
को ढूंढना, पढ़ना और फिर
थोड़ा और सीधा खड़ा होना
बनना निर्भीक और जिम्मेदार
कहीं यही तो नही होता
पिता को समझना
सपने देखना
और उस तरफ चलना
उनके सपनों का पुत्र
बन जमीन पर उतरना
हारना लेकिन फिर जीतना
बनना इंसान
और 
बस पुत्र बनकर ही सुनना
चलना और उनका हाथ पकड़े
यही सोचना कि
कही यही तो नहीं होता
पिता को समझना
....

मां के नि:शब्द स्वप्नों को... पिता के बढ़ते कदमों को,
कुछ थमा देख, कुछ थका देख... उनके मन को कुछ झुका देख,
देखो मैं यह प्रण कर चला...
मैं फिर कुछ आगे बढ़ चला।

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