सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अध्यात्म और प्रबंधन - 1 कर्म, प्रबंधन और फल

अध्यात्म और प्रबंधन - 1 कर्म, प्रबंधन और फल ं भीतर के द्वन्द्व और उमड़ते विचारों को षब्दाकार देना अज्ञान को दूर करने के लिए ज्ञान की खोज में षब्दयात्रा है। यह भी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भले ही  हो लेकिन विचारों से किसी को ठेस पहुंचती हो तो अग्रिम क्षमायाचना। हां, विद्वानों का मार्गदर्षन मिल जाए तो जीवन सफल हो जाए। भारतीय संस्कृति में जीवन की सफलता की खोज अध्यात्म के माध्यम से की जाती रही है। अध्यात्म में भी कुषल प्रबंधन को मैंने महसूस किया है तो इसके लिए कर्म किया जाना भी अनिवार्य लगा है। अध्यात्म में कर्म है ज्ञान प्राप्ति का प्रयास।  और जीवन की सफलता को फल कह सकते है। जीवन प्रबंधन से ही व्यवस्थित और सुखमय हो सकता है। बिना प्रबंधन के तो चींटी भी नहीं जीती। चींटी ही क्यों, प्रत्येक प्राणी को समूह में जीते ही हम देखते हैं। ऐसा कोई प्राणी नहीं जो अकेला जीता हो या आज तक जीया हो। पेड़-पौधों को भी समूह में लहलहाना अच्छा लगता है क्योंकि वे भी बीज रूप से प्रस्फुटित होने से लेकर मुरझाने तक एक कुषल प्रबंधन प्रणाली से विकसित होते हैं, फल देते हैं। जीवन का मकसद ही फल देना है।

ताउम्र साथ रहता है बचपन...

बचपन खेल-खिलौनों तक ही नहीं सिमटा रहता बचपन दादी -नानी और दादा -दादी के साथ बीतता है बचपन कहानियों के दौर से भी आगे यादें समेटता है बचपन ज्ञानार्जन करता है बड़े भाई - बहिनों से बचपन आस पड़ोस के लोगों से भी बहुत कुछ सीखता है बचपन घर के आंगन में उतरने वाली चिड़िया से भी खेलता है बचपन किसी किसी घर के आंगन में किसी पिंजरे को भी कौतूहल से देख्ता है बचपन पिंजरे में बंद मियां मिट्ठू से तुतलाकर आजादी की बोली भी बोलता है बचपन कहीं चारदीवारी के एक हिस्से में बंधी गाय की पूंछ पकड़ने की चेष्टा भी करता है बचपन कार्तिक में ब्याही भूरी कुत्ती के नन्हें प्यारे पिल्लों को अजीबोगरीब नाम भी देता है बचपन पत्ते बदलते देख पेड़ों के मन की पीड़ा समझने की चेष्टा भी करता है बचपन परियों-सी तितलियों की उड़ानं को भी अपने में समाता है बचपन.... इसीलिए तो ... ताउम्र साथ रहता है बचपन... 

परवाज के लिये कोंपलों के हौसले बुलंद है -- सम्मति - मीनाक्षी स्वर्णकार की काव्यकृति ‘‘कोंपलें’

सम्मति - मीनाक्षी स्वर्णकार की काव्यकृति ‘‘कोंपलें’’ परवाज के लिये कोंपलों के हौसले बुलंद है। क्योंकि सृजन के प्रति समर्पण है। जहां समर्पण होता है वहां लगाव भी स्थायी तौर से वास करता है। शब्द-शब्द चुन-चुनकर रचना-संसार को आकार देने वाली कलम में ऐसी ही समर्पण की स्याही भरकर मीनाक्षी स्वर्णकार ने सृजन की परवाज पर कोंपलें उकेरी है। अभिव्यक्ति के कितने ही तरीके हो सकते हैं मगर काव्याभिक्त संस्कृत-काल से लेखन-संस्कृति में शीर्ष पर रही है। मीनाक्षी स्वर्णकार के काव्य-संग्रह कोंपले में 67 काव्य आकृतियां हैं और सभी मन के आईने अंकित हो जाती है। इनमें से संवेदनाओं को जगाती ओस की बूंद अन्तस को भिगो देती है। बावरी-सी ओस की बूंद/ हरी-हरी पत्तियों से गिरकर/ फैल गई सुनहरी धरा पर/ कुछ इठलाती, कुछ इतराती-सी/ खालिस मोतियों की तरह/ चारों ओर बिखरकर/ आलिंगन करने लगी/ सूखी बिखरी घास का/ और अपना सारा यौवन/ इन्हें सौंपकर/ समा गई इनके अंतःकरण में हमेशा हमेशा के लिये/ ये बावरी-सी ओस की बून्द।  (पृष्ठ 31) काव्य-रस से जब तक संवेदनाएं भीगें नहीं, पाठक को भी शीतलता की प्राप्ति नहीं होती। ऐसी ही शिल्पगत प्रवृत्तियों

परवाज के लिये कोंपलों के हौसले बुलंद हैसम्मति - मीनाक्षी स्वर्णकार की काव्यकृति ‘‘कोंपलें’

सम्मति - मीनाक्षी स्वर्णकार की काव्यकृति ‘‘कोंपलें’’ परवाज के लिये कोंपलों के हौसले बुलंद है। क्योंकि सृजन के प्रति समर्पण है। जहां समर्पण होता है वहां लगाव भी स्थायी तौर से वास करता है। शब्द-शब्द चुन-चुनकर रचना-संसार को आकार देने वाली कलम में ऐसी ही समर्पण की स्याही भरकर मीनाक्षी स्वर्णकार ने सृजन की परवाज पर कोंपलें उकेरी है। अभिव्यक्ति के कितने ही तरीके हो सकते हैं मगर काव्याभिक्त संस्कृत-काल से लेखन-संस्कृति में शीर्ष पर रही है। मीनाक्षी स्वर्णकार के काव्य-संग्रह कोंपले में 67 काव्य आकृतियां हैं और सभी मन के आईने अंकित हो जाती है। इनमें से संवेदनाओं को जगाती ओस की बूंद अन्तस को भिगो देती है। बावरी-सी ओस की बूंद/ हरी-हरी पत्तियों से गिरकर/ फैल गई सुनहरी धरा पर/ कुछ इठलाती, कुछ इतराती-सी/ खालिस मोतियों की तरह/ चारों ओर बिखरकर/ आलिंगन करने लगी/ सूखी बिखरी घास का/ और अपना सारा यौवन/ इन्हें सौंपकर/ समा गई इनके अंतःकरण में हमेशा हमेशा के लिये/ ये बावरी-सी ओस की बून्द।  (पृष्ठ 31) काव्य-रस से जब तक संवेदनाएं भीगें नहीं, पाठक को भी शीतलता की प्राप्ति नहीं होती। ऐसी ही शिल्पग

झोली भर दुखड़ा अ’र संभावनावां रा मोती (एक डाक्टर की डायरी)

झोली भर दुखड़ा अ’र संभावनावां रा मोती झोली भर दुखड़ा (एक डाक्टर की डायरी) मूल हिंदी  - डा श्रीगोपाल काबरा  राजस्थानी अनुवाद - श्री बिहारीशरण पारीक प्रकाशक - बोधि प्रकाशन,  झोली भर दुखड़ा अ’र संभावनावां रा मोती हिंदी सूं  राजस्थानी में उल्थौ कहाणी संग्रै झोली भर दुखड़ा कै मायं भावनावां की लहरां माथै संभावनावां की नाव तैरती दिखै। मायड़ भाषा में मोती जियां चिमकता आखर। नाव में सवार है रोगी अ’र पतवार चलावण रौ काम दूजा पात्र नीं बल्कि कलमकार री आपणी अनूठी शैली करै। श्री बिहारीशरण पारीक इण कहाणियां को उल्थौ कर्यो है जिकी हिंदी में डा श्रीगोपाल काबरा रची अ’र डायरी विधा नै नूवां आयाम दिराया। हालांकि आ डायरी री शिकल में कोनी पण अेक डाक्टर री डायरी मायं इसौ शिल्प रच्यो गयो है जिकै सूं आंख्यां सामै को दरसाव किताब कै पाना माथै पाठक नै दूरदर्शन करावै। संग्रै में मरीज अ’र उण रै परिवारवालां सागै सागै अेक डाक्टर री उण पीड़ री दास्तान है जिकी हंसती खेलती जिनगाणी में आज कै समै री खुशरंग चादर माथै दुख तकलीफ रै मवाद सूं भर्योड़ी बीमारी सूं बणयोड़ो पैबंद है। पीड़ रा भी कितराइ दरसाव होय सकै अ’र इण स

पिता ऐसा ही कहते हैं

पिता ऐसा ही कहते हैं बढ़ता अनाचार रिश्तों को डुबो रहा आंख का पानी सूखा इशारे बेमानी हुए जमाना पैसे की गुड़िया का दास बना कलपुर्जों की भीड़ में इनसान कहां होंगे आदमी को ढूंढ़ता रोबोट पृथ्वी पर आएगा युग बीते कितने इतिहास में नहीं दर्ज हुए पुराण कथाओं के किस्से पिता कहते हैं बीत रहा युग नया जमाना आएगा खेलने की उम्र में अपने ही बच्चों को खेलाएंगे पिता ऐसा ही कहते हैं हर बार लगता रहा हैरानगी बढ़ी जानकर समाज सोता रहा पता चला मानव अपना ही गुर्दा बेच रहा रिश्ते रिसते रहे जीवन एकाकी बनता रहा शाख से शाख न निकली पेड़ ठूंठ बन गया फूलों का मकरंद कहां भंवरा ढूंढ़ता रहा

यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे

यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे - 1 - यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे - - लेखक श्री सुदर्शन शर्मा "रथांग" मुंबई  जो ब्रह्माण्ड में है वही पिण्ड अर्थात षरीर में है। सृष्टि रचना के पूर्व, केवल ब्रह्माण्ड अर्थात गोलाकार ब्रह्म था जिसे आधुनिक वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं और उन्होंने इसे ‘ब्लैक होल’ कहा है - कृष्ण मंडल।  कल्पान्त में सभी कुछ इसषून्य में, कृष्ण मंडल में, ब्रह्म में समाहित था। ब्रह्म के मन में विचार उत्पन्न हुआ, एकोऽहम् बहुस्याम् - एक हूं अनेक हो जाऊं। उस विचार की प्रतिध्वनि कृष्ण मंडल में गूंजी और वह ब्रह्म के अहम् की ध्वनि अऽउम अर्थात ऊ ंके स्वरूप में प्रतिष्ठित हुई। यह ध्वनि थी,षब्द रूप थी इसे नाद ब्रह्म की संज्ञा दी गई। षब्द अथवा ध्वनि की उत्पत्ति किन्हीं दो पदार्थों के स्पर्ष से ही संभव है। अब जब प्रारंभ में केवल ब्रह्म ही था, प्रकृति पूर्णतःषून्य स्थिति में थी तो फिर स्पर्ष कैसा! सर्व साधारण मनुष्यों को समझाने हित ब्रह्म की उपका आकाष से की गई है। आकाष को प्रकृति के पांच तत्वों में से एक और प्रथम तत्व माना गया है। आकाष अर्थात अवकाष रिक्ता और इसका आकार गोल ही