बीकानेर का आकाश रंगबिरंगी पतंगों से घिरा 

गुनगुनाता है जिसे हर शख्स वो एक गजल है मेरा नगर ...! चंदा महोत्सव का आनंद आज भी उतना ही आया जितना कि बीते सालों में । दो तीन दिन से तो बीकानेर का आकाश रंगबिरंगी पतंगों से घिरा दिखा और अच्छा भी लगा। यादें जो जुड़ी हुई है बीकानेर की पतंगबाजी से। लड़तों से। लड़तें यानी... पतंगों के पेच। यानी पतंग प्रतियोगिता। छह भून की लटाई पक्के डोर की और चार चार पांच पांच लटाइयां सादे डोर की। भूण या भून यानी करीब 900 मीटर की दूरी के धागे का नाप।
Mohan Thanvi 
सादुल स्कूल के आगे जेलवेल तक मांझा सूतने वालों की कतार। आज भी  मार्ग से निकलने पर ऐसा नजारा हुआ तो सुखद लगा। बीते दो तीन दिन तो शाम के समय आकाश में पतंगें  दिखी। आंधी बारिश भी आई और शनिवार का मौसम तो बल्ले बल्ले। किंतु वो समय भी याद आता है जब ऐसा माहौल और ऐसी पतंगबाजी आखातीज से महीना महीना पहले तक से दिखाई देने लगती थी। बीते दो तीन साल से महंगाई ने इस कदर अपना जाल बिछाया है कि आकाश से पतंगों का जाल खत्म - सा होता लगने लगा है।  सच कहूं । पतंगबाजी के लिए जुनून में वो बात नहीं दिखाई देती जो 21 वीं सदी के आगमन तक बरकरार थी।  बचपन से 55 तक के अपने सफर में पतंगबाजी का जुनून शहर में देखा किंतु आज जब आकाश को पतंगों के रंग में रंगा नहीं देख रहा तो ही महंगाई की ओर ध्यान गया है । बीकानेर में जन्मा और बमुश्किल पांच बार नगर स्थापना दिवस के मौके पर शहर से बाहर रहा। दो बार विदेश में तो दो बार जयपुर में । एक बार पंजाब में। जहां तक याद हैए खुद नहीं तो दोस्तों कोए पड़ोसियों को पचास  सौ रुपए से हजार दो हजार रुपए आखातीज पर पतंगों पर खर्चते देखता आया हूं मगर इस साल... बाजार पतंगों और लटाइयों से हर बार की तरह ही अटा हुआ लग रहा है किंतु... दुकानदार मायूस हैं। बिक्री उतनी नहीं हो रही कि रात रात भर दुकान खोल कर रखें और आखातीज के दिन वांछित पतंग या मांझा नहीं मिले। पिछले आठ दस साल से चाइनीज मांझे ने भी अपना जाल फैलाया किंतु इससे जो नुकसान सामने आया उससे लोग भी जागरूक हुए और चाइनीज मांझे का विरोध हुआ। इस बार विरोध के चलते यह मांझा आसानी से तो नहीं ही दिखाई दे रहा किंतु कतिपय लोग इससे पतंग उड़ा भी रहे हैं और कुछ लोगों के इस मांझे से चोटिल होने के समाचार भी अखबारों में पढ़े ही हैं। कागज धागा लटाई यानी चरखी आदि सभी चीजें तो महंगाई की वजह से आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही है। कामना है, परंपरा निर्वहन में अग्रणी मेरा नगर महंगाई को भी धता बनाए।

गुनगुनाता है जिसे हर शख्स वो एक गजल है मेरा नगर

हरेक मकान की दीवारें साझा हर इंसान का है मेरा नगर

सींचकर खेत पसीने से खेजड़ी पीपल पूजता है मेरा नगर

गहराई से निकाल अमृत-जल प्यास बुझाता है मेरा नगर