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हरि प्रसाद क्यों बना करतार सिंह ?

हरि प्रसाद क्यों बना  करतार सिंह
प्रसिद्ध सिंधी उपन्यास के अनूदित चुनिंदा अंश 
हरि के देखते-देखते देश आजाद हुआ। मगर देश की तरह उसका व्यक्तित्व भी करतार और हरि में बंट गया। बंगाल, पंजाब और करोड़ों दिल टूटे। जेल में यातनाएं सहने वाले फिर समस्याओं से जूझने लगे। भाषण देने वालों को फूलों से लादा गया। कुर्सी की महिमा बढ़ गई। कईयों की दुनियां लुट गई। किसानों को भूख मिली, महाजनों को धन-दौलत। विद्यालयों की संख्या बढ़ी मगर शिक्षक ढूंढ़ने पर तनख्वाह पाने वाले सरकारी कारिन्दे मिले। दिल्ली, कलकत्ता और बंबई के नाम बदल गए, परन्तु लोगों का दुःख-दर्द वही रहा।
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तब हरि ने आश्रम के पार्क में उसे बताया था कि वह अब करतार है।
आश्रम में ही दोनों एक हुए। घर-गृहस्थी की बगिया कब फली-फूली, दोनों को आश्रम सम्हालने में पता ही नहीं चला। दोनों ने काफी कोशिश की अपने अपने परिवार को खोजने की। इस बीच अपना आश्रम खोलने का मौका भी उन्हें मिला जिसका बखूबी उपयोग उन्होंने किया।
एक बार नेहरूजी भी आश्रम में आए, करतार ने उन्हें प़त्र लिखा था, गांधीजी का हवाला दिया था और अपने साथ बम्बई में बिताए क्षणों की याद दिलाई थी। पत्र मिलते ही नेहरूजी ने उसे उत्तर दिया। अगले दो महीने में ही वे तमाम ताम-झाम के साथ दो घंटे के लिए आश्रम में आए। सारा अहमदाबाद मानो चमत्कृत हो उठा। उस दिन के बाद तो जैसे आश्रम की तरक्की को कई पंख लग गए।  इन बातों को बीते भी चालीस साल हो गए। शास्त्रीजी और इंदिराजी के जमाने को वह याद करता तो राजीवजी और चंद्रशेखर के दिन याद आते। अटलजी ने किस तरह आडवाणीजी के साथ मिलकर पहले केन्द्र और फिर कुछ राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का दबदबा कायम किया, किस तरह कांग्रेस की सोनियाजी ने अपना परचम फहराने की कोशिशें जारी रखी; यह सब उससे अनजाना नहीं। सत्तर बरस का हो गया तो क्या हुआ। जानकारी सारी है उसके पास। उसके आश्रम से जीवन बनाने वाले विद्यार्थियों ने उससे नाता नहीं तोड़ा है। बराबर सम्पर्क में रहते हैं।
 सत्तर बसंत देख चुका हरिप्रसाद...करतार सिंह; लगभग 65 सालों का सफर अपने सीने में सहेजे है। कुछ मंजर, कुछ मनोरंजक क्षण, कुछ यात्राएं। वह उन्हें आश्रम के विद्यार्थियों को सुनाता जरूर है। कोई सुने ना सुने।

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