1947 का आदमी : विभाजन में गुम 'नाम' की पीड़ा


ख्यातिप्राप्त गायिका हेमलता जी के बीकानेर आगमन पर उन्हें मोहन थानवी ने अपना उपन्यास भेंट किया






करतार सिंह नॉवेल
करतार सिंह ... उपन्यास, कहानी और नाटक के रूप में सिंधी पाठक इसे पढ़ चुके हैं। अपना अपना नाम करतार सिंह नाटक जवाहर कला केंद्र से पुरस्कृत है। भाषा पत्रिका में नाम गुम जाने की पीड़ा कहानी आपने पसंद की। यहां पेश है उपन्यास का अंश करतार सिंह

1947 का आदमी : विभाजन में गुम 'नाम' की पीड़ा 

अरे करतारा तू यहां कैसे! क्या कर रहा है आजकल। सिटी पैलेस में बच्चों के लिए इलैक्ट्रोनिक खिलौने खरीद रहे करतार सिंह ने देखा रोहित उसी की ओर मुस्कराता हुआ देख रहा है। करतार ने उसे बताया कि अपने पोते सुधांशु के लिए गिफ्ट लेने आया था। 


रोहित ने कहा, वह तो ठीक है मगर तुम यहां दुबई में कैसे। करतार उसे कॉफी शॉप पर ले गया और दोनों पेप्सी के केन से चुस्कियां लेते हुए बतियाने लगे । रोहित से मिले करतार को करीब बीस बरस हो चुके थे मगर उनकी दोस्ती करीब साठ साल पुरानी, पाकिस्तान के जमाने की है। तब रोहित रोहित ही था मगर करतार तब हरिप्रसाद था । सिन्ध पाकिस्तान के सक्खर में बिताए वक्त के बाद रोहित करतार सिंह यानी हरिप्रसाद से बीस बरस पहले दिल्ली के एक सम्मान समारोह में मिला था और उसके बाद अब मिल रहा था। इस दरमियान बीस बरस बीत गए।


 दिल्ली के समारोह में मिलने से पहले और हिन्दुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे के बाद के वर्ष कैसे बीत गए, यह दोनों के लिए स्वप्न समान समय रहा था। दिल्ली के जलसे में भी जब करतार सिंह को पुरस्कार के लिए मंच पर बुलाया गया था तब रोहित जरा भी नहीं सोच सका था कि यह आदमी उसका लंगोटिया यार हरिप्रसाद होगा। जैसे ही करतार सिंह मंच पर पहुंचा और प्रधानमंत्रीजी से अपना पुरस्कार प्राप्त किया वैसे ही रोहित उसे हैरानी से देखता रह गया। प्रधानमंत्रीजी के कार्यालय ने स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मानित करने के लिए इस सादे समारोह में देश के कोने-कोने से आमंत्रित किया था। 


आमंत्रितों में मुंबई से रोहित और अहमदाबाद से करतार सिंह भी शामिल हुए। समारोह में करीब डेढ़ सौ स्वतंत्रता सेनानी शामिल हुए थे। पुरस्कार और प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित होने के बाद रोहित करतार सिंह से मिला और उसे अपना शक बताया कि वह तो उसे अपना बचपन का यार हरिप्रसाद समझ रहा है लेकिन आपका नाम तो करतार सिंह है। करतार सिंह ने भी रोहित को पहचान लिया और उसे बताया था कि अब वह करतार सिंह है हरिप्रसाद नहीं।


 काफी शॉप में काफी की चुस्कियां लेते हुए बीते जमाने की बातें करतार सिंह के दिमाग में घूम रही थी कि रोहित ने उन विचारों की आंधी को एकाएक रोक कर  उसकी तंद्रा भंग की, वह पूछ रहा था - करतारे, यार बीस बरस बाद मिले हैं वह भी यहां विदेश में, यार बता तो सही मेरी तरह तू भी इस बुढापे में यहां क्या कर रहा है ?
करतार सिंह के मन पर जो यादों की घटाएं छायी हुईं थीं उनमें मानों रोहित ने बिजली चमकाने का काम किया। करतार सिंह के दिमाग में उसी पलभर में न जाने कितने विचार एक साथ बिजली की तरह कौंध रहे थे। वह उन विचारों की आंधी पर काबू पाने की काफी कोशिश कर रहा था लेकिन विचार थे कि निर्बाध गति से ऐसे आ रहे थे जैसे सात तालों में बंद अन्दरूनी कमरे में भी हवा पहुंच जाती है। अपनी मनोस्थिति के ऐसे हालात देख करतार सिंह ने रोहित को कह ही दिया कि लंबी कहानी है दोस्त। सत्तर बरस की कहानी क्या यहीं खड़े-खड़े सुनाऊं। रोहित हंसा था। वहीं बेफिक्र हसंी। जो वह अंग्रेजों की नकल उतारते हुए बिखेरता था। वे दिन भी क्या थे। बीते जमाने की बातों के तूूफान ने करतार सिंह के दिमाग को झकझोर कर रख दिया।


 यादें तो मानों सागर की तरह उसके दिमाग पर छा गईं। यादों के समुद्र में गोते लगाता हुआ करतार सिंह सक्खर के उस जमाने में जा पहुंचा जिस जमाने में वह और रोहित अंगरेजों को हिन्दुस्तान छोड़ने के लिए मजबूर करने में जुटे थे।
दिनरात वे इसी विषय में ही चर्चा करते थे। केवल चर्चा ही नहीं करते थे बल्कि ऐसे हैरतअंगेज कारनामे भी अंजाम दिया करते थे जिनके कारण अंगरेजों की हवा खिसक जाती थी। अंगरेजों को भारत से भगाने के लिए उनकी योजनाएं बनती और क्रियान्वित होती रहती थीं। शहीद भगतसिंह जैसे ही सिन्धु की वीर पुत्र शहीद हेमूं कालाणी की तरह वे दोनों भी स्वयं को भारत की अमानत समझते थे। रोहित की खासियत थी कि वह मिमिकरी यानी दूसरों की हूबहू नकल करने में माहिर था। स्कूल मास्टरों की तो वह ऐसी नकल उतारता था कि मौजूद लोगों का हंसते-हंसते पेट में दर्द हो जाता। अंगरेजों की नकल जब वह उतारता तो आम सड़कों पर अंगरेजों को पसीना आ जाता, उनका बुरा हाल हो जाता। 


यही कारण था कि रोहित सक्खर ही नहीं आसपास के इलाके में भी बखूबी पहचाना जाता था। स्कूल फंक्शन में तो रोहित को ऐसे किरदार के रूप में पेश किया जाता था जो समारोह के सभी पात्रों का सिरमौर था। उसे हकीकत में भी स्टूडेंट का नेता ही माना जाता था। समारोह में आलम यह हो जाता कि उसके मंच पर आने की घोषणा होते ही हॉल तालियों से गूंज उठता था। रोहित जो कार्यक्रम पेश करता वह निश्चित रूप से प्रथम स्थान हासिल करता और वह कार्यक्रम होता अंगरेजों की मिमिकरी। उनकी नकल करके उन्हीं की मिट्टी पलीत करना मानों उसका शगल था। इतना ही नहीं यह सब होता भी रोहित की पसंद के अनुसार ही था। पेश किए जाने वाले आइटम की रिहर्सल और विषयवस्तु के लिए उसे स्कूल प्रबंधन की स्वीकृति की जरूरत नहीं होती थी।


 वह अंगरेजों के लहजे में कहता था: अरे बाबा तुम काले-काले आदमी अमारा सामने मत आया करो, दूर हट जाओ अमारा रास्ता से। यह कहते हुए वह बंदर की तरह ऐसे मुंह बनाता कि देखने-सुनने वाले हंसे बिना रह ही नहीं सकते थे।
इतना ही नहीं, रोहित हिन्दुस्तानियों की तरफ से अंगरेजों को जवाब भी देता था, कहता था- वाह रे पगले, हम तुम्हें सामने देखना ही क्यों चाहेंगे, पगले, हमें क्या तुम्हें देखकर सारा दिन भूखा रहना है? बंदरों जैसे तुम्हारे लाल मुंह को देखकर घर जाएंगे तो हमारे दादा-दादी दहलीज पर पैर नहीं रखने देंगे। मां तो हमें सारा दिन खाना ही नहीं खाने देगी, दही परांठा भी नहीं मिलेगा नाश्ते में। समझे लाल बंदर।



रोहित ये सारी बातें इस तरह पेश करता था कि समारोह में शामिल बच्चों के साथ-साथ अभिभावक तो हंसते-हंसते लोटपोट हो ही जाते वहां मौजूद अंगरेज भी बात को समझ कर मन में गुस्सा दबाए हंसने को मजबूर होते।
वे दिन भी क्या दिन थे। करतार सिंह तब हरिप्रसाद था। हरिप्रसाद से वह करतार सिंह कैसे बन गया यह बात दो-तीन आदमियों के अलावा और किसी को मालूम नहीं क्योंकि हरिप्रसाद खुद अपने परिवार के सदस्यों से पिछले 60 साल से ढूंढ़ रहा है। न तो हरिप्रसाद या के करतार सिंह अपने परिवार के किसी सदस्य को ढूंढ़ सका और न ही उसके परिवारजन अपने हरिप्रसाद को कहीं पा सके।


 विभाजन की त्रासदी के बाद करतार सिंह या हरिप्रसाद जैसे कितने ही आदमियों ने अपने परिवार को खो दिया, अपना वजूद दूसरे नाम से कायम रखा और अपने ही लोगों में परायों की तरह रहने को मजबूर हुए। हरि के परिवारजन के लिए तो हरि अब है या...।
1947 में देष ही नहीं समाज और दिल भी विभाजित हो गए। एक षख्स दो नामों में बंट गया। अपने देष की तरह दो नामों वाला हो गया। वही षख्स आज 70 साल की उम्र में परदेस में, यहां दुबई में अपने लंगोटिया यार से मिल रहा था और विचारों में खोया था। 


करतार सिंह के दिमाग में यह बात घूम रही थी कि एक वह ही नहीं है जिसने अपना नाम गुमा दिया। दूसरे भी ऐसे बहुत हैं। नाम गुमाने का मतलब हरिप्रसाद से करतार सिंह हो जाना ही नहीं है। नाम तो उन्होंने ने भी गुमा दिया जो अब सिन्ध की रीति-रिवाज भूल गए। जिन्होंने अपने नन्हे बाल-गोपालों को सिन्धी संस्कृति और बोली-भाशा से दूर पाष्चात्य संस्कृति की चपेट में आने से पहले ठोस कदम नहीं उठाए। वे बाल-गोपाल अब युवा होकर सिन्धी, हिन्दी या अन्य भारतीय भाशा की जगह अंगरेजी लिखने-पढ़ने और बोलने में फख्र महसूस करते हैं और अपनी संस्कृति को भूल-से गए हैं। जिन्हें पता ही नहीं है कि हमारी संस्कृति कैसी है। हमारा परम्परागत पहरावा कैसा है। हाथ में लाठी या छड़ी लेकर और सिर पर टोपी पहनकर आज कौन चलता है?


 नाम गुमाना तो इसे भी कहा जाएगा कि लोगों को यह भी पता नहीं है कि उनके बड़े-बुजुर्ग सिन्ध में किस षहर-कस्बे या गांव में रहते थे? आज अपनी बोली और भाषा का महत्त्व जानते हुए भी बच्चों को सिन्धी लिखना-पढ़ना नहीं सिखाया जा रहा। यह भी तो नाम गुमा देने के समान ही है, नहीं है क्या?



नाम गुमा देने के बाद विभाजन के दर्द को सहते-सहते अपने-आपको फिर से समाज का हिस्सा बनाने की कोशिशों में लगे कितने ही परिवार, उनके साथ लोगों के सिरमौर कहलाने वाले जनप्रतिनिधि नेता, समाज का व्यवहार और राजनेताओं के चाल-चलन, अपनी आर्थिक स्थिति से जूझते-संघर्ष करते सामाजिक परेषानियों और समस्याओं का सामना करते लोग अपने एक नाम की रामनामी-सी ओढ़े हैं। दरअसल उस रामनामी के नीचे कोई नाम ही नहीं है। है तो गुम हो चुका है। ऐसे कितने ही आदमियों के झुण्ड में एक मैं हूं। मैं यानी के अवतार सिंह...।



रोहित की आवाज से मानों करतार सिंह स्वप्न से जागा। दुबई के इस सिटी पैलेस में इस समय खूब रौनक लगी थी। भारत के कोने-कोने से मानों सभी वर्गों के लोग यहां आ गए थे। मलबारी, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, सिन्धी सभी के साथ बंगलादेष, पाकिस्तान, चीन, जापान, मलेषिया और अन्य विदेषी तक यहां नजर आ रहे थे।

करतार सिंह रोहित की ओर देखकर मुस्कुराया और बोला: यार, यह तो बता कि तू आज भी अंगरेजों की नकल उतारता है या अब बस भी की है।


रोहित को मानो इस सवाल ने सक्खर की याद दिला दी। वह भी मुस्कुराया और करतार की आंखों में झांकते हुए बोला: यार अंगरेजों को गए तो 55 साल से अधिक समय हो गया लेकिन वे अपनी अंगरेजियत भारत में ही छोड़ गए हैं। देखो तो लोग भी कितने पगले हैं, इस समय हम लोग परदेस में हैं। यहां परदेस में भी, दुबई में भी आकर ये लोेग अरबियत के रंग में रंग गए हैं। वह देखो, है तो मलबारी लेकिन दाढ़ी-मूंछ इस स्टाइल में रखी है जैसे कोई बड़ा षेख हो मगर इस पर यह ऐसे लग रही है जैसे कि बकरे की दाढ़ी हो। बताओ इस पर यह जंच रही है क्या?


करतार सिंह को जोर से हंसी आ गई। है अभी वही रोहित, पहले अंगरेजों को लाल मुंह का बन्दर कहता था, अब यहां इनको बकरा कह रहा है। करतार सिंह रोहित को एक सोफे पर बैठाकर खुद उसके समीप उससे सटकर बैठ गया। दोनों यारों में बातों का दौर चला तो डेढ़ घंटा कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। 

- मोहन थानवी (बहुभाषी )  

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